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________________ [२८] हटे ? और अन्तमें अपनी कार्यमें वे सफल होते रहे । यह अपूर्व धीरज धारण करनेका स्वभाव भी अनुकरणीय है। उनकी ' श्रीमंतीकी' कल्पना वे हरवखत वार्तालाप करते समय कहते हैं, “ हम पैसेसे श्रीमान् नहीं है " हमारी श्रीमानता आंतिरिक भावोंपर अवलंबित है । हररोज आत्माभिमुख होकर अपने मनसे पूंछते है कि, ' क्या तूने आज कोई पर अन्याय किया, किसीका विश्वासघात किया, अभिमान छोडकर स्वार्थ के लिये लाचारी की ' ऐसेही दूसरे प्रश्न अपने मनको पूछनेसे उनका उत्तर ' आजतक यह बातें नहीं की ' ऐसा जब आत्मासे उत्तर मिलता है तभी वे बडे अभिमानसे मनमें खुष रहते हैं । जब सांझेमे कपडेका व्यवहार शुरू किया और उसी वखतके अनुसार नफेमेही चल रहा था तोभी इस एकही कारणसे कि, कदाचित् सांझेबालेसे अपनेसे कोई मतभेद होजाय और जो वह एकदम सांझा तोडकर अपनी रकम मागेगा तो उसी वखत अपने को देना पडेगा इसीलिये अपने अकेलेके उपजीविकाके लिये जब पचीस तीस हजारकी रकम अपने पास होगई है तो अब साझे. वालोको उनकी मुदल रकम मुनाफेसाथ दे देना और आगे यदाकदाचित् व्यापार नुकसान का प्रसंग हो जाय तो उसी वखत अपना उपर्युक्त शीलमे डगमग होनेका प्रसंग प्राप्त होने का संभव है । इसीके लिये बारा वर्षवाद अपना व्यापार कम करते चले । जिसकाही फल वे आज अपने सर्व संपत्तीका त्यागकर अपरिग्रही बने हैं। वे शीलकोही अपनी संपत्ति मानते है । इसी लिये दूसरे संपत्तीके मोहमे जखडे गये नहीं । धर्मपत्नी जीवराजभाईकी धर्मपत्नी सौ. रतनबाई स्वभावसे बहुत सीधीसाधी और सरल थी। उसका मन शांत और प्रेममय था । संसारका बोझ वह शांतीसे सह लेति रही। जीवराजभाईकी गरीब अवस्थामें उसने अतिकष्टपूर्वक और खर्च कमी करके संसार चलाया । इससे उन्हें धंदेमें पूरीतरहसे सहायता मिली । इस महान् सहयोगका आदर रखने के लिए जीवराजभाईने सखाराम नेमचंद जैन औषधालयके लिए साडे बारह हजार रुपये खर्च करके नी इमारत बांध दी और उसे सौ. रतनबाई रुग्णपरिचर्या मंदिर यह नामाभिधान देकर अपनी कृतज्ञता प्रगट की। सौ. रतनबाईने श्वशुरवासीजनोंकी और अपने पितृवंशके बंधूजनोंकी भलीभांति सेवा की ह । इसमें सब आप्तगणोंमें उसका आदरसे प्यार होता रहा । जीवराजभाईके व्यावहारिक उत्कर्षमें सौ. रतनबाईका आधा बांटा था यह जीवराजभाई कभी भूल नहीं पाते । सौ. रतनबाई की प्रेरणासे उन्होंने श्री गजपंथ क्षेत्रपर १९९० में मंदिर बनाकर जिनबिंबका पंचकल्याणिकोत्सव किया। अपनी जीवनके अंततक उसने अपने पितृवंशीय लडकोंकी देखभाल की। उनकी सुस्थिति सुधारनेमें मदद की। एसी अवस्थामें अंतमें संवत् १९९२ पौष मासमें श्वासरोगसे छुटकारा पाकर उसने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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