SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [२७] प्रेम था। श्री. धन्यकुमार कस्तुरचंद शहा और उनके भाई अभयकुमार इन दो मातुलगृहीय लडकोंका जीवन ऐहिक और धार्मिक दृष्टिसे अत्युत्कृष्ट बनानेका प्रयत्न किया। उनकी शिक्षा का सब खर्च करते रहे, उनके नोकरीकाभी प्रबंध उन्होंने किया। लेकिन अपने उपकारके बदले में अपनी इच्छा उनके माथेपर लादनेकी कोशिस नहीं की । यही स्थितप्रज्ञता देखकर हमें अचरज होता है। मन्दिर निर्माण जीवराजभाईने श्री परमपूज्य आचार्य शान्तिसागर महाराजके आदेशसे श्रीगजपंथ तीर्थक्षेत्रके पहाडपर एक छोटासा मन्दिर बनाकर सं. १९९४ में उसमें श्रीपार्श्वनाथ तीर्थकरकी मूर्ति विराजमान करके पंचकल्याणिक प्रतिष्ठा बनवाई और संवत् २००६ सालमें श्री कुंथलगिरिक्षेत्र जो मण्डपप्रतिष्ठा महोत्सव हुवा उस समयभी एक मूर्ति श्रीमुनिसुव्रत तीर्थकर की प्रतिष्ठापना करवाई । इनके पिताजी गौतमचंदजीने श्री पावागढ क्षेत्रके तलहाटीमें मन्दिरप्रतिष्ठा बनवाई और उनके प्रपितामह श्री नेमचंदजीने गिरनार क्षेत्रपर प्रतिष्ठा बनवाई थी । ऐसे तीन पीढियोंतक इनके वंशमें धर्मध्वजा फडकानेका सौभाग्य प्राप्त हुवा है । ऐसी परंपरा चलना कचित् अनुभवमें आता है। गुणाकर्षण, कृतज्ञता और नैरपेक्ष्य ___ जीवराजभाईका एक वैशिष्टयपूर्ण स्वभाव है । जीवन में उनको जिन सम्बन्धित व्यक्तियोंके अच्छे गुणों का परिचय हुआ उसके और उनका मन आकर्षित होते हुए उस व्यक्तिके सम्बन्धमें आदर निर्माण होकर बढताही जाता है । स्वयं ऐसे सुंदर एवं गुणविशिष्ट बननेकी आकांक्षा चित्तमें निर्माण होती है । इसी तरह आजतक उन्होंने अनेक सद्गुणी जनोंका अनुकरण करते हुझे अपने जीवन का काल बिताया । उसका फल यह हुआ कि वे निर्दोष सदाचारका पालन करने में मग्न रहे। इसके सिवा अपने कार्यमें जिन्होंने सहाय्यता दी उन्हें न भूलते हुए योग्य समय उस कार्यका योग्य मूल्य दे देते हैं । जीवनकी प्रथम कालमें जीवराजभाईके पत्नीने अनेक कष्ट सहते हुए जो अमोल सहयोग दिया उसकी कृतज्ञता प्रदर्शित करने के लिए इ. सन. १९२३ में श्री. सखाराम नेमचंद जैन औषधालयकी इमारत बांधकर उसका “ सौ. रतनबाई रुग्ण परिचर्या मंदिर " ऐसा नामाभिधान रक्खा गया। उसी तरह धंदेकी प्रथम कालमें मातृगृहसे कपडेकी दुकान खोलने के लिए भांडवल मिला था इस लिए उन्होंने मातृगृहके दो लडकोंको शिक्षा कार्यमें सहाय्यता देकर एकको इंजिनिअर और दूसरेको डॉक्टर ( M. B. B. S. ) बनाया और मातृगृहके बच्चोंकी बारा बरसतक देखभाल और पालपोसकर बडा किया। लेकिन उनकी तरफसे उन्होंने कुछभी फलकी इच्छा नहीं रखी। केवल अपना कर्तव्य समझकर जीवराज भाई हर एक कार्य निरपेक्ष बुद्धिसे करते आए हैं । शोलापुरके देवालयके हिसाबकी माँग करने के लिए उन्हें दावा करना पडा, धमकियाँ सुनने पडे, कष्ट सहना पडा लेकिन वे अपने कार्यसे एक पग भी पीछे नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy