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________________ [२६] ऑपरेशन के लिए उन्हें बम्बई जाना पड़ा। लेकिन पहले उन्होंने अपना मृत्युपत्र तैयार करके अपने संपत्तिकी व्यवस्था की। ऑपरेशनके पश्चात् व्रतधारी जीवराजभाई अपने व्रतोंपर अटल रहे । व्रतोंसे जरा भी विचलित नहीं हुआ। सज्जन-संगति गुणिजनोंके साथ रहना, उनकी आवभगत करना, गुणवानोंके लिए अपना तनमनधन खर्च करना यह और एक जीवराजभाईके स्वभावकी बडी विशेषता है । अपने सब वैयक्तिक कार्योंका त्याग करके, विचार विकारों को दूर रखकर वे सज्जनोंका सम्मान करनेकेलिए आगे दौड जाते हैं । नित्य स्वाध्याय, जिनपूजा, सामायिक आदि पवित्रषट्कर्म करनेमें वे दिन बिताते हैं । जैन संस्कृति संरक्षक संघ की स्थापना करके उन्होंने जैनअजैन समाजमें जैन सिद्धांत के जो ज्ञानी और श्रेष्ठ विद्वान हैं उन्हें एक जगह लाकर उनके हाथ से महान्कार्य कर लिया। प्राचीन दिगंबर जैन ग्रंथ प्रकाशन, इतिहास संशोधन, ग्रंथसूची निर्माण आदि महान् कार्य के लिए इस संस्थाकी निर्मिति हुई है। डॉ. ए. एन्. उपाध्ये, डॉ. हिरालाल जैन आदि विद्वानों के साथ वे बरस के कुछ दिन बिताते हैं । सन १९४१ में गरमी के छुट्टीमें गजपंथ (नासिक) में भरे हुए विद्वत्समेलन में उन्हों ने जैन संस्कृति संघ की निर्मिति की घोषणा की। इस संघ के अंतर्गत जीवराज ग्रंथमाला प्रकाशन से आज बहुमूल्य ग्रंथप्रकाशन हो रहा है । अंतिम इच्छा डॉ. उपाध्ये को भेजे हुअ खत में उन्हों ने अपनी अन्तिम इच्छा प्रगट की है। उन्हों ने लिखा है- मैं सोच रहा हूं कि मेरा उर्वरित जीवनकाल निःसंग निष्परिग्रह होकर व्यतीत करूं । उस महान् अवस्थाका रसस्वाद छं । लेकिन मेरी वृद्धावस्था और शारीरिक दुर्बलता मुझ उस अवस्थामें जाने के लिए बाधक हो रही है। फिर भी जिनधर्मप्रणीत मार्गानुसार केवल मेरे उदरनिर्वाह के लिए योग्य धन रखके मैं मेरा सर्वस्व तनमनधन संघके लिए अर्पण कर रहा हूं। परिग्रहकी रक्षा की चिन्तासे मुक्त होने से मुझे अत्यंत आनन्द हो रहा है और संतोषवृत्ति दिन ब दिन बढ़ती जा रही है। सं. २०१० सन १९५४ ता. २६।१०।५४ में निर्वाण अमावस्याको श्री. कुंथलगिरी क्षेत्रपर अटल बीमारी समझकर उन्होंने जो कुछ थोडा धन रखा हुवा था, उसका भी त्याग कर वे पूर्ण अपरिग्रही बन गये और उन्होने उसी वख्त नवमी प्रतिमा धारण करली। स्थित प्रज्ञवृत्ति . जीवराजभाईने जिन्हें बचपनसे मदद की है, और जिनका जीवन उन्नतिपथपर ले जाने की कोशिसें की हैं ऐसे व्यक्ति उनकी आप्तवर्गमें और समाजमें अनेक मिलते हैं। धर्मपत्नी के भतीजे श्री. माणिकचंद वीरचंद और स्व. वालचंद मोतिचंद पर उनका अपत्यवत् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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