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[२५] औषधीय दान
जीवराजभाईने श्री. सखाराम नेमचंद औषधालयका उत्कर्ष आर्थिक और आयुर्वेदिक दृष्टि से किया। अपनी धर्मपत्नी रतनबाईके नामसे साडे बारा हजार रुपये खर्च कराकर इस संस्थाकी इमारत सं. १९७९ सन १९२३ में बांध दी। इसके सिवा फिरता दवाखानेके लिए चार हजार और नेत्रचिकित्सालय स्थापित करके उसके लिए रु. १०४७५ खर्च किए। पत्रकार और वाङ्मयसेवक
जीवराजभाईकी शिक्षा मराठी ५ वी कक्षा तक और अंग्रेजी तीसरी कक्षातक ही हुई थी। घरमें स्वयं संस्कृत और अंग्रेजीका अध्ययन करते रहे । आपके ऊपर सोंपा हुआ 'जैन-बोधक' का संपादन कार्य इ. स. १९१६ से १९२० तक कुशलतासे संपन्न किया। जैनागमके विरुद्ध और तर्कविसंगत प्रश्नपर उससमय जोरसे टूट पडे । इससे · जैन-बोधक' की प्रतिष्ठा और लोकप्रियता बढ गई। हिंदी भाषाका अध्ययन और हिंदी पुस्तकोंका मराठीमें अनुवाद करके जीवराजभाईने मराठी वाचकोंकी सहायता की । तत्त्वार्थसूत्र, आत्मानुशासन, जैनसिद्धांत प्रवेशिका, हरिवंशपुराण, रत्नकरंडक श्रावकाचार, सार्वधर्म आदि ग्रंथोंके सरस और सरल अनुवाद उन्होंने किए है । उनके जीवन में रत्नकरंड श्रावकाचार' ग्रंथको महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है । श्रावकोंको जीवन में यथार्थ मार्गदर्शन का कार्य करनेवाला यह अपूर्व ग्रंथ है ऐसी उनकी अटल निष्ठा है। इसलिए स्वयं जीवराजभाईने यह ग्रंथ अनुवादित किया । प्रतिमाधारी जीवराजजी
धर्मग्रंथके अध्ययनसे उनकी आँखे खुली। जीवनकी सार्थकता केवल संपत्तिके त्यागपर ही नहीं पंचपापोंके और कषायोंके त्यागपर भी निर्भर है यह सोचकर आत्मोन्नतिके लिए वे एक एक पदसे आगे बढने लगे। प. पू. ऐ. पन्नालालजीके समक्ष परस्त्री-त्याग, अष्टमूलगुण आदि पाक्षिक व्रतोंकी धारणा पहलेसेही की थी। सन १९०८ सं. १९६४ में परिग्रह-परिमाणवत लेकर दो लाख रुपयोंकी अन्तिम मर्यादा निश्चित की। इसके सिवा तीर्थयात्रा करना, रथोत्सव कराना, प्रतिष्ठा कराना आदि नैमित्तिक धर्मक्रिया में भी वे दक्ष थे। मुनिसुव्रतकाव्य, रत्नकरंड श्रावकाचार, द्रव्यसंग्रह, तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रंथोंके पठण और अध्ययनसे भाषा और धर्मज्ञानका मर्म समझ लेनेकी पात्रता आ गई। जीवनका आदर्श
. जीवन स्वयं नहीं बनता, उसे संस्कार आदिसे निर्माण करना पडता है। जीवराजभाईने अपनी अठारह बरसकी नवयौवन आयुमें ही ' शांति' का ध्येय निश्चित किया और उसकी अनुसार अपना जीवन बनानेका प्रयत्न किया। सन १९४४ में उनका स्वास्थ्य बिगडा ।
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