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________________ २९८ ) तिलोयपण्णसी [४. १९७४ अरजिणवरिदतित्थे सट्रिसहस्साणि होति विरदीमो। पणवण्णसहस्साणि मल्लिजिणेसस्स तित्थम्मि ॥११७४ २००००। ५५०००। पण्णाससहस्साणिं विरदीओ सुम्बदस्स तित्थम्मि । पंचसहस्सब्भहिया चालसहस्सा णमिजिणम्मि ॥११७५ ५००००। ४५०००। विगुणियवीससहस्सा णेमिस्स कमेण पासवीराण । अडतीस छत्तीसं होंति सहस्साणि विरदीमो॥१९७६ ४००००।३८०००।३६०००। भपणदुछपंचंबरपंचंककमेण तित्थकत्ताणं। सव्वाण विरदीमो चंदुजलणिकलंकसीलामो ॥ ११७७ ५०५६२५०।। बम्हप्पकुजणामा धम्मसिरी मेरुसेणअयणता। तह रतिसेणा मीणा वरुणा घोसा य धरणा य ॥ ११७८ चारणवरसेणाओ पम्मासम्वस्सिसुब्वदाओ वि । हरिसेणभावियानो कुंथूमधुसेणपुष्वदत्ताभो ॥ ११७९ मग्गिणिजक्खिसुलोया चंदणणामामो उसहपहुदीर्ण । एदा पढमगणीमओ एकेक्का सम्वविरदीभो ॥ ११८० लक्खाणि तिणि सावयसंखा उसहादिअट्टतिस्थेसु । पत्तेकंदो लक्खा सुविहिप्पहदीसु अट्टतिस्थेसु ॥ ११८१ ८।३०००००।२०००००। अर जिनेन्द्रके तीर्थमें साठ हजार और मल्लि जिनेन्द्रके तीर्थमें पचवन हजार आर्यिकायें थीं ॥ ११७४ ॥ ६०००० । ५५००० । सुव्रतके तीर्थमें पचास हजार और नमिजिनके तीर्थमें पांच हजार अधिक चालीस हजार अर्थात् पैंतालीस हजार आर्यिकायें थीं ।। ११७५ ॥ ५००००। ४५०००। नेमिनाथके तीर्थमें द्विगुणित बीस हजार अर्थात चालीस हजार और क्रमसे पार्श्वनाथ एवं वीर भगवानके तीर्थमें अडतीस तथा छत्तीस हजार आर्यिकायें थीं ॥ ११७६ ॥ ४००००। ३८०००। ३६०००। सब तीर्थंकरोंके तीर्थमें चन्द्रके समान उज्ज्वल एवं निष्कलंक शीलसे संयुक्त समस्त आर्यिकायें क्रमसे शून्य, पांच, दो, छह, पांच, शून्य और पांच, इन अंकोंके प्रमाण थीं ॥११७७॥ ५०५६२५० । ब्राह्मी, प्रेकुब्जा, धर्मश्री, मेरुषेणा, अनन्ता, रतिषेणी, मीना, वरुणा, घोषां, धरणा, चारणी, (धारणा), वरसेना, पैमा, सर्वश्री, सुव्रता, हरिषेणी, भाविता, कुंथुसेना, मधुसेनी (बंधुसेना), पूर्वदत्ती ( पुष्पदत्ता ), मौर्गिणी, यक्षिणी", सुलोका (सुलोचना) और चन्दी नामक ये एक एक आर्यिकायें क्रमसे ऋषभादिकके तीर्थमें रहनेवाली आर्यिकाओंके समूहमें मुख्य थीं ॥११७८-११८०॥ श्रावकोंकी संख्या ऋषभादिक आठ तीर्थंकरोंमेंसे प्रत्येकके तीर्थमें तीन लाख और सुविधिनाथप्रभृति आठ तीर्थंकरोंमेंसे प्रत्येकके तीर्थमें दो लाख थी ॥ ११८१ ॥ ऋषभादिक ८--- ३०००००, सुविधिनाथप्रभृति ८-२००००० । १ द ब °णिम्मलंक. २ द ब बम्हप्पकुव्वणामा, ३ बणामा. ४ द ब पम्मासत्तस्ससुद्धधाओ वि. ५ द सुविहप्पहुदीसु. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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