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________________ २८२ ] तिलोयपण्णत्ती [ ४.१०५७ सहस त्ति सयलसायरसलिलुप्पीलस्स सोसणसमत्था । जायंति जीएं मुणिणो घो रपरकमतव ति सा रिद्धी ॥ १०५७ जीए होंति मुणिणो खेत्तम्मि वि चोरपहुदिबाधाओो । कालमहाजुद्धादी रिद्धी साघोरबम्हचारिता || १०५८ उक्कत्सक्खडवसमे चारित्तावरणमोहकम्मस्स । जा दुस्सिमणं णासह रिद्धी साघोरबम्हचारिन्ता ॥ १०५९ अथवा सगुणेहिं अघोरं महेसिणो बम्हसद्दचारितं । विष्फुरिदाए जीए रिद्धी साघार बम्हचारिता || १०६० । एवं तवरिद्धी समत्ता । बलरिद्धी तिविहप्पा मणवयणसरीरयाण भेएण । सुदणाणावरणाए पगडीए वीरयंतरायाए । १०६१ उक्कसक्खउसमे मुहुत्तमेत्तंतरम्मि सयलसुदं । चिंतइ जाणइ जीए सा रिद्धी मणबला णामा ॥ १०६२ जिभिदियणो इंदिय सुदणाणावरणविरियविग्धाणं । उक्तस्सखभोवसमे मुहुत्तमेत्तंतरम्मि मुणी ॥ १०६३ सयलं पि सुदं जाणइ उच्चारइ जीए विप्फुरंतीए । अमो अहिकंठो सा रिद्धीउ णेया वयणबलणामा ॥ १०६४ बरसाने में समर्थ; और सहसा सम्पूर्ण समुद्र के सलिलसमूह के सुखाने की शक्तिसे भी संयुक्त होते हैं। वह घोरपराक्रमतपऋद्धि है ॥ १०५६ - १०५७ ॥ जिस ऋद्धिसे मुनिके क्षेत्रमें भी चौरादिककी बाधायें और काल ( महामारी ) एवं महायुद्धादिक नहीं होते हैं, वह अघोरब्रह्म चारित्वऋद्धि है ॥ १०५८ ॥ चारित्रनिरोधक मोहकर्म अर्थात् चारित्रमोहनीयका उत्कृष्ट क्षयोपशम होने पर जो ऋद्धि दुख को नष्ट करती है, वह अघोरब्रह्मचारित्वऋद्धि है || १०५९ ॥ अथवा- जिस ऋद्धिके आविर्भूत होनेसे महर्षिजन सब गुणोंके साथ अघोर अर्थात् अविनश्वर ब्रह्मचर्यका आचरण करते हैं, वह अघोरब्रह्मचारित्वऋद्धि है || १०६० ॥ इसप्रकार तपऋद्धिका कथन समाप्त हुआ । मन, वचन और कायके भेदसे बलऋद्धि तीन प्रकार है । इनमेंसे जिस ऋद्धिके द्वारा श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय, इन दो प्रकृतियोंका उत्कृष्ट क्षयोपशम होनेपर मुहूर्तमात्र कालके भीतर अर्थात् अन्तर्मुहूर्त कालमें सम्पूर्ण श्रुतका चिन्तवन करता है व जानता है, वह मनोबल नामक ऋद्धि है || १०६१-१०६२ ।। जिह्वेन्द्रियावरण, नोइन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट क्षयोपशम होनेपर जिस ऋद्धिके प्रगट होनेसे मुनि श्रमरहित और अद्दीनकंठ होता हुआ मुहूर्तमात्र कालके भीतर सम्पूर्ण श्रुतको जानता व उसका उच्चारण करता है, उसे वचनबल नामक ऋद्धि जानना चाहिये ।। १०६३ - १०६४ ॥ १ द ब जिय. २ द व महाछुद्दादी. ३ द ब जिय विष्फुरतिए ४ द ब यसमे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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