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________________ -१.१०५६] चउत्थो महाधियारो [२८१ उग्गतवा दित्ततवा तत्ततवा तह महातवा तुरिमा । घोरतवा पंचमिया घोरपरकमतवा छट्ठी॥१०४९ तवरिद्धीए कहिदं सत्तमयमघोरबम्हचारित्तं । उग्गतवा दो भेदा उग्गोग्गभवहिदुग्गतवणामा ॥ १०५. दिक्खोववासमादि कादणं' एक्काहिएकपचएणे । आमरणंतं जवर्ण सा होदि उग्गोग्गतवरिद्धी ॥ १०५१ बहुविहउववासेहिं रविसमवखंतकायकिरणोघो । कायमणवयणबलिणो जीएं सा दित्ततवरिद्वी १०५२ तत्ते लोहकडाहे पडिअंबुकणं व जीए भुत्तणं । झिजदि धाऊहिं सा णियझाणाएहिं तत्ततवा ॥ १०५३ मंदरपंतिप्पमुहे महोववासे करेदि सम्वे वि । चउसपणाणवलेणं "जीए सा महातवा रिद्धी ॥ १.५४ जलसूलप्पमुहाणं रोगेणञ्चतपीडिअंगा वि । साहति दुद्धरतवं जीए" सा घोरतवरिद्धी॥ १०५५ णिरुवमवईततवा तिहुवणसंहरणकरणसत्तिजुदा । कंटयसिलग्गिपव्ययधूमुक्कापहुदिवरिसणसमत्था ॥ १०५६ उग्रतप, दीप्ततप, तप्ततप, तथा चतुर्थ महातप, पांचवीं घोरतप, छठी घोरपराक्रमतप और सातवीं अघोरब्रह्मचारित्व, इसप्रकार तपऋद्धिके सात भेद कहे गये हैं । इनमेंसे उग्रतपऋद्धिके दो भेद हैं--- उग्रोग्रतप और अवस्थितउग्रतप ।। १०४९-१०५० ॥ दीक्षोपवासको आदि करके आमरणान्त एक एक अधिक उपवासको बढाकर यापन अर्थात् निर्वाह करना, यह उग्रोग्रतपऋद्धि है ॥ १०५१ ॥ [ दीक्षार्थ एक उपवास करके पारणा करे और पुनः एक एक दिनका अन्तर देकर उपवास करता जाय । पुनः कुछ निमित्त पाकर षष्ठ भक्त, पुनः अष्टम भक्त, पुनः दशम भक्त, पुनः द्वादशम भक्त, इत्यादि क्रमसे नीचे न गिरकर उत्तरोत्तर आमरणान्त उपवासोंको बढ़ाते जाना अवस्थितउग्रतपऋद्धि है ॥ १०५१*१॥] ___ जिस ऋद्धिके प्रभावसे मन, वचन और कायसे बलिष्ठ ऋषिके बहुत प्रकारके उपावासोंद्वारा सूर्यके समान शरीरकी किरणोंका समूह बढ़ता हो वह दीप्ततपऋद्धि है ॥ १०५२ ॥ तपी हुई लोहेकी कडाहीमें गिरे हुए जलकणके समान जिस ऋद्धिसे खाया हुआ अन्न धातुओंसहित क्षीण हो जाता है, अर्थात् मल-मूत्रादिरूप परिणमन नहीं करता है, वह निज ध्यानसे उत्पन्न हुई तप्ततपऋद्धि है ॥ १०५३ ॥ जिस ऋद्धिके प्रभावसे मुनि चार सम्यग्ज्ञानोंके बलसे मंदरपंक्तिप्रमुख सब ही महान् उपवासोंको करता है, वह महातपऋद्धि है ॥ १०५४ ॥ जिस ऋद्धिके बलसे ज्वर और शूलादिक रोगसे शरीरके अत्यन्त पीडित होने पर भी साधुजन दुर्द्धर तपको सिद्ध करते हैं, वह घोरतपऋद्धि है ।। १०५५ ।। जिस ऋद्धिके प्रभावसे मुनिजन अनुपम एवं वृद्धिंगत तपसे सहित, तीनों लोकोंके संहार करनेकी शक्तिसे युक्त; कंटक, शिला, अग्नि, पर्वत, धुआं तथा उल्का आदिके १ द कादं. २ द ब पंचेण. ३ द ब जीवे. ४ द ब महोववासो. ५ द ब जीवे. ६ द व पीडिअंगो. ७द ब जीवे. TP. 36 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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