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________________ २७८ तिलोयपण्णत्ती . [४. १०२३ सक्कादीण वि पक्खं बहवादेहि णिरुत्तरं कुणदि । परदव्वाइं गवेषइ जीए वादित्तरिधी सा ॥ १०२३ । वादित्तं गदं। एवं बुद्धिरिद्धी समत्ता। अणिमा-महिमा-लघिमा-गरिमा-पत्ती य तह अ पाकम्मं । ईसत्तवसित्ताई अप्पडिघादंतधाणा य ॥ १०२४ रिद्धी हु कामरूवा एवंरूवेहिं विविहभेएहिं । रिद्धिविकिरिया णामा समणाणं तवविसेसेणं ॥ १०२५) अणुतणुकरणं अणिमा अणुछिद्दे पविसिदण तत्थेव । विकरदि खंदावार णिएसमवि' चक्कवट्टिस्त ॥ १.२६ मेरुवमाणदेहा महिमा अणिलाउ लहुतरो लहिमा । वजाहिंतो गुरुवत्तणं च गरिम त्ति भण्णंति ।।१०२७ भूमीए चेहँतो अंगुलिअग्गेण सूरससिपहुदि । मेरुसिहराणि अण्णं जं पावदि पत्तिरिद्धी सा ॥ १०२८ सलिले वि य भूमीए उम्मजणिमजणाणि जे कुणदि। भूमीए विय सलिले गच्छदि पाकम्मरिद्धी सा॥ णिस्सेसाण पहत्तं जगाण ईसत्तणामरिद्धी सा। वसमेंति तवबलेणं जं जीओहा वसित्तरिद्धी सा॥१०३० जिस ऋद्धिके द्वारा शाक्यादिक (या शक्रादि) के पक्षको भी बहुत वादसे निरुत्तर कर दिया जाता है और परके द्रव्योंकी गवेषणा ( परीक्षा ) करता है ( या दूसरोंके छिद्र अथवा दोष ढूंढता है ) वह वादित्वऋद्धि कहलाती है ॥ १०२३ ॥ वादित्व ऋद्धि समाप्त हुई। __इसप्रकार बुद्भिऋद्धि समाप्त हुई । अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशत्व, वशित्व, अप्रतिघात, अन्तर्धान और कामरूप, इसप्रकारके अनेक भेदोंसे युक्त विक्रिया नामक ऋद्धि तपोविशेषसे श्रमणोंके हुआ करती है ॥१०२४-१०२५॥ __अणुकं बराबर शरीरको करना अणिमाऋद्धि है । इस ऋद्धिके प्रभावसे महर्षि अणुके बराबर छिद्रमें प्रविष्ट होकर वहां ही चक्रवर्तिके कटक और निवेशकी विक्रियाद्वारा रचना करता है ॥ १०२६॥ मेरुके बराबर शरीरके करनेको महिमा, वायुसे भी लघु शरीरके करनेको लघिमा, और वज्रसे भी अधिक गुरुतायुक्त शरीरके करनेके गरिमाऋद्धि कहते हैं ॥ १०२७ ॥ भूमिपर स्थित रहकर अंगुलिके अग्रभागसे सूर्य-चन्द्रादिकको, मेरुशिखरोंको तथा अन्य वस्तुको प्राप्त करना यह प्राप्तिऋद्धि कहलाती है ॥ १०२८ ।। जिस ऋद्धिके प्रभावसे जलके समान पृथिवीपर भी उन्मजन-निमजन क्रियाको करता है और पृथिवीके समान जलपर भी गमन करता है, वह प्राकाम्यऋद्धि है ।। १०२९ ॥ जिससे सब जगत्पर प्रभुत्व होता है. वह ईशवनामक ऋद्धि; और जिससे तपोबलद्वारा जीवसमूह वशमें होते हैं, वह वशित्व ऋद्धि कही जाती है ॥ १०३० ॥ १ [परछिद्दाइं]. २ द तह अप्पकम्मं, ब तहा अ पाकम्मं. ३ द ब वसत्ताई. ४ द णिएस चकवहिस्स. ५व मेरूवमाणा. ६ द ब उम्मजणाणि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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