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-४.१०२२ ]
चउत्थो महाधियारो
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.. करिकेसरिपहृदणं दसणमेत्तादि' चिण्हसउणं तं । पुवावरसंबंधं सउणं तं मालसउणो त्ति ॥ १०१६
सउणणिमित्तं गदं।
। एवं णिमित्तरिद्धी सम्मत्ता। पगडीए सुदणाणावरणाए वीरियंतरायाए । उक्कस्सक्खउवसमे उप्पज्जइ पण्णसमणद्धी॥ १०१७
पण्णासवणद्धिजुदो चोद्दसपुव्वीसु विसयसुहुमत्तं ।
सव्वं हि सुदं जाणदि अकअज्झअणो वि णियमेण ॥ १.१८) (भासंति तस्स बुद्धी पण्णासमणद्धि सा च चउभेदा । अउपत्तिअ-परिणामिय-वइणइकी-कम्मजा णेया ॥ १.१९) अउपत्तिकी भवंतरसुदविणएणं समुल्लसिदभावा । णियणियजादिविसेसे उप्पण्णा पारिणामिकी णामा ॥१०२० वहणइकी विणएणं उप्पजदि बारसंगसुदजोग्गं । उवदेसेण विणा तवविसेसलाहेण कम्मजा तुरिमा ॥ १०२१
। पण्णसवणं गर्द। कम्माण उवसमेण य गुरूवदेसं विणा वि पावेदि । सपणाणतवप्पगम जीएं पत्तेयबुद्धी सा ॥ १०२२
। पत्तेयबुद्धी गदा।
इनमें से स्वप्नमें हाथी व सिंहादिकके दर्शनमात्र आदिकको चिह्नस्वप्न और पूर्वापर सम्बन्ध रखनेवाले स्वप्नको मालास्वप्न कहते हैं ॥ १०१३-१०१६ ॥
स्वप्ननिमित्त समाप्त हुआ।
इसप्रकार निमित्तऋद्धि समाप्त हुई । श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट क्षयोपशम होनेपर प्रज्ञाश्रमणऋद्धि उत्पन्न होती है । प्रज्ञाश्रमणऋद्धिसे युक्त जो महर्षि अध्ययन के विना किये ही चौदह पूर्वोमें विषयकी सूक्ष्मताको लिये हुए सम्पूर्ण श्रुतको जानता है और उसका नियमपूर्वक निरूपण करता है उसकी बुद्धिको प्रज्ञाश्रमणऋद्धि कहते हैं । वह औत्पत्तिकी, परिणामिकी, वैनयिकी और कर्मजा, इन भेदोंसे चार प्रकारकी जानना चाहिये ॥ १०१७-१०१९॥
इनमेंसे पूर्व भवमें किये गये श्रुतके विनयसे उत्पन्न होनेवाली औत्पत्तिकी, निज निज जातिविशेषमें उत्पन्न हुई परिणामिकी, द्वादशांगश्रुतके योग्य विनयसे उत्पन्न होनेवाली वैनयिकी, और उपदेशके बिना ही विशेष तपकी प्राप्तिसे आविर्भूत हुई चतुर्थ कर्मजा प्रज्ञाश्रमणऋद्धि समझना चाहिये ॥ १०२० -१०२१ ॥
प्रज्ञाश्रमणऋद्धि सम जिसके द्वारा गुरुके उपदेशके बिना ही कर्मोके उपशमसे सम्यग्ज्ञान और तपके विषयमें प्रगति होती है, वह प्रत्येकबुद्धि कहलाती है ॥ १०२२ ॥
प्रत्येकबुद्धि समाप्त हुई।
१ द ब दसणजेहादि. २ द ब जीवे. ३ द ब गदं.
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