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________________ -४.१०३१] चउत्थो महाधियारो [२७९ सेलसिलातरुपमुहाणभंतरं होइदूणे गयणं व । जं वञ्चदि सा रिद्धी अप्पडिघादेत्ति गुणणाम ॥ १०३१ जं हवदि अद्दिसत्तं अंतद्वाणाभिधाणारिद्वी सा । जुगवं बहुरूवाणिं जं विरयदि कामरूवरिद्धी सा ॥ १०३२ । विकिरियारिद्धी समत्ता । दुविहा किरियारिद्धी णहयलगामित्तचारणत्तेहिं । उट्ठीओ आसीणो काउस्सग्गेण इदरेणं ॥ १०३३ गच्छेदि जीए एसा रिद्धी गयणगामिणी णाम । चारणरिद्धी बहुविहवियप्पसंदोहविस्थरिदा ॥ १०३४ जलजंघाफलपुप्फ पत्तग्गिसिहाण धूममेघाणं । धारामकडतंतूजोदीमरुदाण चारणा कमसो ॥ १०३५ ( अविराहियप्पुकाए जीवे पदखेवणेहिं जं जादि । धावेदि जलहिमझे स चिय जलचारणा रिद्धी॥ १९३३ चउरंगुलमेत्तमहि छंडिय गयणम्मि कुडिलजाणु विणा । जं बहुजोयणगमणं सा जंघाचारणा रिद्धी ॥ १०३७ अविराहिदण जीवे तल्लीणे वणफलाण विविहाणं । उवरिम्मि जे पधावदि सञ्चिय फलचारणा रिन्द्वी ॥ १०३८ अविराहिदूण जीवे तल्लीणे बहुविहाण पुप्फाणं । उवरिम्मि जं पसप्पदि सा रिद्धी पुप्फचारणा णामा ॥ १०३९ जिस ऋद्धिके बलसे शैल, शिला और वृक्षादिकके मध्यमें होकर आकाशके समान गमन किया जाता है, वह सार्थक नामवाली अप्रतिघातऋद्धि है ॥ १०३१ ॥ जिस ऋद्धिसे अदृश्यता प्राप्त होती है, वह अन्तर्धाननामक ऋद्धि; और जिससे युगपत् बहुतसे रूपोंको रचता है, वह कामरूपऋद्धि है ॥ १०३२ ॥ विक्रियाऋद्धि समाप्त हुई। नमस्तलगामित्व और चारणत्वके भेदसे क्रियाऋद्धि दो प्रकार है। इनमें से जिस ऋद्धिके द्वारा कायोत्सर्ग अथवा अन्य प्रकारसे ऊर्ध्व स्थित होकर या बैठकर जाता है, वह आकाशगामिनी नामक ऋद्धि है। तथा दूसरी चारणऋद्धि क्रमसे जलचारण, जंघाचारण, फलचारण, पुष्पचारण, पत्रचारण, अग्निशिखाचारण, धूमचारण, मेघचारण, धाराचारण, मर्कटतन्तुचारण, ज्योतिश्चारण और मरुच्चारण इत्यादि अनेक प्रकारके विकल्पसमूहोंसे विस्तारको प्राप्त है ॥ १०३३-१०३५ ॥ जिस ऋद्धिसे जीव पैरोंके रखनेसे जलकायिक जीवोंकी विराधना न करके समुद्रके मध्यमें जाता है और दौडता है, वह जल चारण ऋद्धि है ॥ १०३६ ॥ __ चार अंगुलप्रमाण पृथिवीको छोड़कर आकाशमें घुटनोंको मोड़े बिना जो बहुत योजनोंतक गमन करना है, वह जंघाचारणऋद्धि है ।। १०३७ ॥ जिस ऋद्धिसे विविध प्रकारके वनफलोंमें रहने वाले जीवोंकी विराधना न करके उनके ऊपरसे दौड़ता है, वह फलचारणऋद्धि है ॥ १०३८ ।। जिस ऋद्धिके प्रभावसे बहुत प्रकारके फूलोंमें रहनेवाले जीवोंकी विराधना न करके उनके ऊपरसे जाता है, वह पुष्प चारण नामक ऋद्धि है ॥ १०३९ ॥ २ द ब लद्धिसत्तं. ३ द ब ऋद्धि. ४ द ब उद्धीओ. १ द ब पमुहाणं अंतरतं होइदम्मि. ५ द अक्कडतंतू. ६ द जलचालणा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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