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________________ -४. ८६५ ] चउत्थो महाधियारो [२५७ तुरिमे जोदिसियाणं देवीओ परमभत्तिमंतीओ। पंचमए विणिदाओ वितरदेवाण देवीओ।। ८५९ छट्टम्मि जिणवरचणकुसलाओ भवणवासिदेवीओ। सत्तमए जिणभत्ता दसभेदा भावणा देवा ॥ ८६० अट्ठमए अट्टविहा उतरदेवा य किण्णरप्पहुदी। णवमे ससिरविपहुदी जोइसिया जिणणिविट्ठमणा ॥ ८६१ सोहम्मादी अच्चुदकप्पंता देवराइणो दसमे । एक्करसे चक्कहरा मंडलिया पत्थिवा मणुवा ॥ ८६२ बारसमम्मि य तिरिया करिकेसरिवग्घहरिणपहुदीओ । मोत्तण पुन्ववेरं सत्त वि सुभित्तभावजुदा ॥ ८६३ ।गणविण्णासा समत्ता। अह पंचमवेदीओ णिम्मलफलिहोवलेहि रइदाओ। णियणियचउत्थसालासरिच्छउच्छेहपहुदीओ ॥ ८६४ २४ २३| २२ २१] २० १९] १८/१७ १६ १५ १४ १३ २८८२८८२८८,२८८२८८ २८८ २०८/२८८ २८८ २८८ २८८ २८८ २८८ २८८ २८८ २८८ २८८ २८८ २८८ २८८ २८८ २८८ ५७६ ५७६ | ।पंचमवेदी समत्ता। तत्तो पढमे पीदा वेरुलियमणीहि णिम्मिदा ताणं । णियमणथंभादिमहीउच्छेहा हवंति उच्छेहा ॥ ८६५ २४/२३ २२२१२० १९१८ १७/१६/१५ १४ १३ १२ ११ १०९८ चतुर्थ कोठेमें परम भक्तिसे संयुक्त ज्योतिषी देवोंकी देवियां और पांचवें कोठेमें व्यन्तर देवोंकी विनीत देवियां बैठा करती हैं ॥ ८५९ ॥ छठे कोठेमें जिनेन्द्रदेवके अर्चन में कुशल भवनवासिनी देवियां और सातवें कोठेमें जिनभक्त दश प्रकारके भवनवासी देव बैठते हैं ॥ ८६० ॥ आठवें कोठेमें किन्नरादिक आठ प्रकारके व्यन्तर देव और नवम कोठेमें जिनदेवमें मनको निविष्ट करनेवाले चन्द्र-सूर्यादिक ज्योतिषी देव बैठते हैं ॥ ८६१ ॥ दश कोठेमें सौधर्म स्वर्गसे आदि लेकर अच्युत स्वर्गतकके देव और उनके इन्द्र तथा ग्यारहवें कोठेमें चक्रवर्ती, माण्डलिक राजा एवं अन्य मनुष्य बैठते हैं ॥ ८६२ ॥ बारहवें कोठेमें हाथी, सिंह, व्याघ्र और हरिणादिक तिर्यंच जीव बैठते हैं । इनमें पूर्व वैरको छोडकर शत्रु भी उत्तम मित्रभावसे युक्त होते हैं ॥ ८६३ ॥ गणोंकी रचना समाप्त हुई । ___ इसके अनन्तर निर्मल स्फटिक पाषाणोंसे विरचित और अपने अपने चतुर्थ कोटके सदृश विस्तारादिसे सहित पांचवीं वदियां होती हैं ॥ ८६४ ॥ पांचवीं वेदीका वर्णन समाप्त हुआ। ___ इसके आगे वैडूर्यमणियोंसे निर्मित प्रथम पीठ हैं । इन पीठोंकी उंचाई अपनी अपनी मानस्तम्भादिपृथिवीकी उंचाईके सदृश है ॥ ८६५ ॥ १द वग्घहरिणि'. २ दब महीदुच्छेहो हवंति दुच्छेहो. TP, 33 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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