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________________ २५६] तिलोयपण्णत्ती [४. ८५३ णिम्मलपडिहविणिम्मियसोलसभित्तीण अंतरे कोट्ठा । बारस ताणं उदओ णियाजिणउदएहिं बारसहदेहिं ॥ ८५३ ६००० । ५४००। ४८००। ४२०० । ३६००।३००० । २४०० । १८०० । १२०० । १०८० । ९६० । ८४०। ७२० । ६०० । ५४० । ४८० । ४२० । ३६० । ३०० । २४० । १८० । १२० । २७ । २१ । वीसाहियकोससयं रुंदं कोट्ठाण उसहणाहम्मि । बारसवग्गेण हिदं पणहीणं जाव मिजिणं ॥ ८५४ १२० | ११५ ११० १०५ १०० ९५ । ९० ८५ ८० ७५ ७० ६५ | १४४/१४४१४४ | १४४१४४ | १४४ १४४ १४४ १४४ | १४४ १४४ १४४ १४४ | १४४ | १४४ | १४४/१४४ १४४ १४४ १४४ | १४४ १४४| पासजिणे पणवीसा अडसीदीअधियदुसयपविहत्ता । वीरजिणिदे दंडा पंचघणा दसहदा य णवभजिदा ॥ ८५५ २५ १२५० २८८ ९ । । सिरिमंडवा समत्ता। चेटुंति रिसिगणाई' कोढाणभंतरेसु पुवादी । पुह पुह पदाहिणेणं गणाण साहमि विण्णासा ॥ ८५६ अक्खीणमहाणसिया सप्पीखीरामियासवरसाभो । गणहरदेवप्पमुहाँ कोटे पढमम्मि चेटुंति ॥८५७ बिदियम्मि फलिहभित्तीअंतरिदे कप्पवासिदेवीओ। तदियम्मि अजियाओ सावइयाओ विणीदाओं ॥ ८५८ निर्मल स्फटिकमणिसे निर्मित सोलह दीवालोंके बीच में बारह कोठे होते हैं । इन कोठोंकी उंचाई अपने अपने जिनेन्द्रकी उंचाइसे बारहगुणी होती है ॥ ८५३ ॥ ऋषभनाथ तीर्थंकरके समवसरणमें कोठोंका विस्तार बारहके वर्ग अर्थात् एकसौ चवालीससे भाजित एकसौ बीस कोसप्रमाण था। इसके आगे नेमिनाथ तीर्थकरतक क्रमशः उत्तरोत्तर पांच पांच कम होते गये हैं ॥ ८५४ ॥ ___पार्श्वनाथ तीर्थंकरके समवसरणमें इन कोठोंका विस्तार दोसौ अठासीसे भाजित पच्चीस कोस और महावीर स्वामीके पांचके घनको दशसे गुणा करके नौका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतने धनुषप्रमाण था ॥ ८५५ ॥ श्रीमण्डपोंका वर्णन समाप्त हुआ। ___ इन कोठोंके भीतर पूर्वादि प्रदक्षिणक्रमसे पृथक् पृथक् ऋषि आदि बारह गण बैठते हैं । इन गणोंके विन्यासका आगे कथन करता हूं ॥ ८५६ ॥ ___ इन बारह कोठोंमेंसे प्रथम कोठेमें अक्षीणमहानसिक ऋद्धि तथा सर्पिरास्रव, क्षीरास्रव व अमृतानवरूप रसऋद्धियोंके धारक गणधर देवप्रमुख बैठा करते हैं ॥ ८५७ ॥ __ स्फटिकमणिमयी दीवालोंसे व्यवहित दूसरे कोठेमें कल्पवासिनी देवियां और तीसरे कोठेमें अतिशय नम्र आर्यिकायें तथा श्राविकायें बैठा करती हैं ॥ ८५८ ।। १द हिरगणाई, ब रिहिगणाई. २ द ब मियामिवीरसओ. ३ द मणहरदेव . ४ द सावइयाओं वि विणिदाओ.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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