SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [२३] जीवराजभाईको कुछ लोगोंकी मददसे देवालयके जमाखर्चकी मांगका दावा करना पडा । अन्तमें उन्हें उसमें यशःप्राप्ति होकर दूसरी पक्षको देवालय सार्वजनिक है और उसका हिसाब प्रसिद्ध करना अनिवार्य है यह कोर्टका हुक्म मानना पडा । इस कार्यमें व्यस्त रहते समय दूसरी पक्षके लोगोने धमकियां देकर, भय दिखाकर उन्हें परावृत्त करना चाहा लेकिन निग्रही और निश्चयी स्वभावसे वे अन्त तक लडते ही रहे। इसी तरह जीवराजभाईने कुंथलगिरि क्षेत्रकी इक्कीस हजारको रकम भी उसकी और अपने मातृपक्षीय परंडेकर कुलकी 'दानशूर' कीर्ति की आपने बड़ी कठिनाई और सावधानीसे रक्षा की। कोमल अन्तःकरण संकट कालमें दूसरोंको सहायता देना, विशेषतया बीमारोंकी देखभाल और सेवा शुश्रूषा करने की परोपकारी सेवावृत्ति हम जीवराजभाईमें जनमसे ही पाते हैं । आपने अपने अनेक आप्तजनोंकी प्लेग जैसी भीषण बीमारीमें भी सेवाशुश्रूषा की है । सन १९१८ में भारतवर्षमें इन्फ्लूएंझा की बीमारी सारे देश में फैल गई थी। शोलापुरमें भी इस बीमारीने हाहाकार मचाया। बीमारोंको दवा देने के लिए भी कोभी व्यक्ति नहीं थी। ऐसी परिस्थितिमें हाल ही में स्थापित हुआ श्री. सखाराम नेमचंद जैन औषधालयकी तरफसे श्री. श्रीपाल आदि वैद्योंसे सहित आपने नगरके कुछ भागोंमें स्वयं घुमकर गरीब जनताको दवा देनेकी व्यवस्था की। प्रसिद्ध नगरशेट हरिभाई देवकरण घरके प्रमुख पुरुष श्रीमान् वालचंद रामचंद इन्फ्लूएंझा की बीमारीसे हैरान हो रहे थे। इस भयानक स्पर्शजन्य बीमारी में भी जीवराजभाईने न घबराते हुओ उनकी रात दिन आठ दिन तक शुश्रूषा की । अन्तमें जीवराजभाईके अंक पर ही उनका प्राणोत्क्रमण हुआ। सन १९७१ में श्रीगोमटेश यात्राको जातेसमय असिकेरी स्टेशन पर जीवराज भाईके नौकरको अचानक प्लेगकी बिमारीसे पछाड लिया। स्टेशन पर उतरते समय वह नौकर बेसुध था। उसे बाहरकी धर्मशालामें ले जाने के लिए कोी तयार नहीं था। आखिर आपने बेसुध नोकरको अपने पीठ पर लेकर धर्मशाला गये। उसकी दवा के लिए सौ दीड सौ रुपिये खर्च किए अन्तमें वह उस बीमारीसें मर गया । अनेक बीमारीयोंकी इस तरह आपने सेवाशुश्रूषा की। बीमारीयोंका दुःख आपका कोमल अंतःकरण नहीं सह सकता। अपनी अशक्त शरीरका और भयानक प्लेगकालमें अपनी मृत्यू की पर्वा नहीं करते हुए आपने सेवाकार्य किया । सेवाकार्य करनेवाला आपकाकोमल मन तात्विक दृष्टिकोणमें वज्रके समान कठोर बन जाता है। सत्यके आप अतिआग्रही है। उसमें आप किसीकी भीडभाड नहीं रखते। आजन्म आपने अपने कामके लिए किसीको भीड नहीं दिखाी । आपका कहना है - मैं यदि मेरे अन्याय्य कार्यके लिए किसीसे भीडसे कार्यभाग साध लूं तो दूसरोंके कार्योंमें भी उनकी भीडसे उनकी इच्छानुसार मुझे अपनी प्रवृत्ति बदलनी होगी और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy