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संस्कारोंके कारण आपको अन्याय और अनीतिसे जीवन व्यतीत करना बहुत ही घृणित प्रतीत होता था । आपने अपना अन्तिम ध्येय शान्ति और सन्तोष निश्चय कर लिया था । एक बार आपने कोइमतूरसे जरीके रूमालोंकी एक पेटी मंगाई । पेटीमें ऑर्डर से एक रूमाल अधिक निकला जिसकी कीमत कोई पांच, सात रुपये होगी । इसकी सूचना कोइमतूरवालोंको देना चाहिए थी, पर नहीं दी गई । अपने व्यावसायिक जीवनभर में केवल यही एक अनिष्ट घटना जीवराज भाईको अब भी याद आती है जिसका उन्हें भारी पश्चात्ताप और दुःख है । इसी पश्चात्तापसे पता चलता हैं कि वे धन्धेर्मे कहां तक निष्कपट और निष्पाप रहनेका प्रयत्न करते रहे । निष्पाप और सुरक्षित धन्धा समझकर आपने संवत् १९६४ में सोने चांदी की दूकान भी की। उसी समय यूरोपीय युद्धके कारण मोती बझार में खूब तेजी हुई और लाभ भी खूब हुआ । पर पश्चात् भाव बहुत गिर जाने से बहुत हानि उठाकर वह दुकान बंद की । सं. १९६७ सन १९११ में आपने. दृढ निश्चय कर लिया था कि व्यवसायमें लेशमात्र भी अन्याय वे भविष्य में अपने हाथों कभी न होने देंगे और निम्न श्लोक मोटे अक्षरों में लिखकर आपने अपनी बैठक में लगा लियाअकृत्वा परसंतापं अगत्वा खलनम्रताम् । अनुत्सृज्य सतां वर्त्म यत्स्वल्पमपि तद् बहु ||
संतोष-भवन-निर्मिति
सन १९१७ में आपको अनुभव हुआ कि अपनी सांसारिक आवश्यकताओंकी पूर्ति के योग्य पर्याप्त न्यायोपार्जित धन संग्रह हो गया है। अत एव धीरे धीरे अपने साझे के धन्धे से हाथ खींचना प्रारंभ कर दिया और संतोष का अपूर्व आनन्द अनुभव करने लगे । प्रामाणिकता, सच्चाई, सत्त्व, शील, स्वाभिमान आदि गुणोंकी रक्षा संतोषवृत्ति से ही हो सकती है। इस तरह दस ग्यारह हजार रुपयोंकी लागत से आपने एक इमारत बनवाली और उसका नाम ' संतोषभुवन
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रक्खा ।
सामाजिक सेवा
श्रीमान् हिराचंदजीकी प्रेरणासे जीवराज भाईको सार्वजनिक कार्य करने की धुन लगी । श्री हिराचंदजी सार्वजनिक संस्थाओंका जमाखर्च हर साल प्रसिद्धिको देते रहे । सार्वजनिक संस्था आम जनताकी होती है । इसलिए जनता को भी दिलासा चाहिए इस नओ नीतिपर उनकी अटल श्रद्धा थी । जीवराजभाई पर इस नीतिका असर हो जानेसे जिन सार्वजनिक संस्थाओं का कार्य वे करते थे उनका हिसाब भी हरसाल प्रसिद्ध करते रहे । इससे लोगों में सार्वजनिक संस्थाओंके धन पर जनताका निर्विवाद हक रहता है वह भावना बदली गई । हर एक मंदिर के जमाखर्चके प्रसिद्धिकी मांग जनताकी तरफसे होने लगी । पुराने जमाने के लोग इस कार्य में विघ्न लाने लगे । शोलापुर में भी एक देवालय के बारेमें ऐसाही एक प्रसंग उत्पन्न हुआ । लेकिन
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