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पर दो तीन माह पश्चात् ही पुन: सावन भादोंमें प्लेग का प्रकोप बढा । पर इस बार कहीं अन्य ग्राम न जाकर नगरके बाहर पुरानी मिलके समीप रहे । यहां भी प्लेगके आक्रमणसे पूरी रक्षा न हो सकी। आपके चचेरे भाई माणिकचन्द हिराचंदजीकी धर्मपत्नी तथा दूसरे चचेरे भाई जीवराज हिराचंदजीका यहां स्वर्गवास हो गया । ऐसा भय होने लगा कि क्या कुटुम्बका कोई व्यक्ति इस बीमारीसे नहीं बचेगा ! इसी भयके कारण जीवराज हिराचंदजीको उनकी बीमारीमें पृथक्रखने की व्यवस्था की गई । पर काकाजी और कुटुम्बके अन्य सब व्यक्तियोंके मना करने पर भी जीवराजभाईने अपने चचेरे भाईकी उनके अन्तसमय तक शुश्रूषा करना नहीं छोड़ा। संकटकालमें आत्मीय जनको परायेकी भांति पृथक् कर देना उन्हें किसी प्रकार भी उचित और न्यायसंगत नहीं जान पडा । प्लेगके भीषण स्वरूपको देखकर भी उनका निग्रही मन आप्तजनकी सेवासे जरा भी विचलित नहीं हुआ । इन दोनोंके वियोगके पश्चात् वे स्थान परिवर्तनके लिए कुईवाडी गये । पर यहां भी प्लेगने पीछा नहीं छोडा । वहां माणिकचंद हिराचंद और सखारामजीकी धर्मपत्नी उमाबाईका देहान्त हुआ। फिर शोलापुर लौटकर इस वक्त जीवराजभाई गांवमें नगरशेट हरीभाई देवकरणके बंगले में रहे । इस बार प्लेगने उनके चाचा वेणीचंदके घरको आग लगा दी। स्वयं वेणीचन्द और उनकी बहन और आखिर उनकी पत्नीको क्रमशः प्लेगने घेरकर स्वर्गकी राह दिखायी । उन के पत्नीके पास इस भयानक बीमारीमें बैठने के लिए भी कोी व्यक्ति पैसा देकरभी नहीं मिला । बेशुद्ध अवस्थामें पांच दिन के बाद उसे मृत्युने घेर लिया । श्मशान आनेके लिए भी कोसी व्यक्ति राजी नहीं हुआ। इस समय जीवराजभाईने उसके अन्त्यसंस्कार किए। सांपत्तिक स्थिति
पिताजीकी मृत्युके पश्चात् बाल्यावस्थाके कारण जीवराजभाईको अपनी आर्थिक परिस्थितिका यथार्थ ज्ञान नहीं था। आपके पिता गौतमचंदजी पन्नालाल लाहोटी नामक एक मारवाडीके साझेमें ' गौतमचंद नेमीचंद के नामसे सूतका व्यापार करते थे । पिताजी और पन्नालालकी मृत्यु के पश्चात् भी कुछ समय तक यह दूकान चलती रही, परन्तु घाटा अधिक रहा । अन्तमें पन्नालालके भतीजे रामप्रतापके साथ आपसमें निपटारा कर लगभग सवा बारह हजार रुपये लेकर उस दूकान से संबंध हटा लिया । पश्चात् बांडसाडियोंका स्वतंत्र धन्धा किया । इ. स. १९०० के लगभग शोलापुरमें पुरानी मिलका सूतका सट्टा चालू था । पहले इसतरफ जीवराजभाईकी आँखें लगी लेकिन अन्तमें यह विनाशके तरफ बढनेवाला मार्ग है यह सोचकर उन्होंने इस धन्धेका त्याग किया । कुछ काल पश्चात् अपने मामा माणिकचंद रामचंदके भतीजे हिराचंद परमचन्द के साथ कपडे की दूकान खोली । साझेमें दूकान खोलते समय व्यक्तिगत धन्धा न करनेका दोनोंने निश्चित वायदा किया । इस दूकानमें लगभग सात वर्षोंमें पचास हजार का मुनाफा हुआ। धन्धेकी इस सफलताके पश्चात् ही जीवराजभाईको विश्वास हो सका कि वे अपने पूर्वजोंकी कीर्तिके अनुसार सम्मानपूर्वक रह सकते हैं। संवत् १९५४-५५ में पड़े हुए धार्मिक
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