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________________ [२०] माता और पिता __ हमारे चरितनायक जीवराजभाईके पिता गौतमचंदजी थे और माता झुमाबाई । गौतमचंदजीकी बुद्धि बडी प्रखर और स्वभाव कुछ तेज था । संस्कृत साहित्यमें आपकी विशेष रुचि थी और कविता भी किया करते थे। किन्तु संग्रहणी रोगसे ग्रस्त हो जानेके कारण उनकी प्रकृति अच्छी नहीं रहती थी । अन्ततः उनका मस्तिष्क भी विचलित हो गया और संवत् १९४६ के मार्गशीर्ष मासमें अपनी ५० वर्षकी अवस्था में वे स्वर्गवासी हो गये। बाल्यकाल और शिक्षा गौतम चन्द जीके सन्ताने तो ९-१० हुई किन्तु उनके जीवनकाल में केवल जीवराजभाई और उनकी ज्येष्ठ बहन चतुरबाई ही जीवित रहे । शेष सब पुत्र-पुत्रियां अत्यल्प आयुमें ही कालके गालमें समा गये। जीवराज भाईका जन्म फाल्गुन शुक्ल ११, संवत् १९३६ (इ. स. १८८०) को हुआ था । केवल दश वर्षके बाल्यकाल में ही उनको पितृवियोग हो गया । इनके लगभग दो ही वर्ष पश्चात् उनकी बड़ी बहन चतुरबाईका देहान्त हुआ और उसके दो तीन वर्ष पश्चात् संवत् १९५१ में उनकी मातृश्री भी स्वर्गवासिनी हुई । इस प्रकार पन्द्रह वर्षकी कोमल अवस्था में ही पिताके स्नेह, माताके दुलार और जेष्ठ भगिनीके लाडप्यारसे वंचित होकर जीवराजभाई संसारमें अकेले रह गये । उन्हें इसलिए अंग्रेजी ३ री कक्षातक शिक्षा पाकर सरस्वती मंदिरसे दूर हटना पडा। केवल १५ सालकी कोमल अवस्थामें जीवराज भाई का शिक्षा पाना ही बंद हो गया। अशक्त शरीर और निग्रही मन चरितनायकके पिताजीके अस्थिर स्वास्थ्य को देखते हुए अन्य कुटुम्बियोंने उनके जीवनकालमें ही जीवराजभाईका विवाह सम्बन्ध यहां के ही श्री. पानाचंद हिराचंदकी कन्या श्री रतनबाईके साथ पक्का कर दिया था। यह विवाह संवत् १९४९ में माघ शुक्ल ५ को मातृश्रीके समक्ष जीवराजभाईकी तेरह वर्षकी अवस्थामें ही सम्पन्न हो गया । इस बन्धनसे उस वियोग कालमें एक नया सहारा मिल गया । तीन वर्षके वैवाहिक जीवनके पश्चात् संवत् १९५२ में जीवराजजीको कन्यारत्नकी प्राप्ति हुई और इसप्रकार सोलह वर्षकी अवस्थामें वे पिता कहलाने लगे । पितृपरंपरासे जीवराजभाईका शरीर दुबलापतला था। स्वभाव भीरु और बुद्धि साधारण थी। फिर भी वैवाहिक जीवनका बोझा सम्भालते हु वे घरमें ही संस्कृत और अंग्रेजीका अध्ययन करने लगे । लकिन संवत् १९५३-१९५४ में शोलापुरमें प्रथम प्लेग पडनेके कारण जीवराजभाई सहकुटुम्ब अपने मामाके यहां परंडा और फिर वहांसे मामा के साथ कुंथलगिरि क्षेत्रको गये । इस प्लेगकालमें अनेक कष्ट सहने पडे किन्तु कुंथलगिरि में चार पांच मास रहने से उन्हें उस क्षेत्री सुव्यवस्थाका अवसर मिला । और वर्षपट्टी आदि लगाकर उस क्षेत्रके वार्षिक खर्चका सुप्रबंध कर दिया गया। प्लेग शान्त होने पर सन १८९७ के चैत्र मासमें शोलापुर लौट आये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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