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________________ २५२ ] तिलोय पण्णत्ती [ ४. ८२७ दिया साला अज्जुणवण्णा णियधूलि सालसरिसमणा । णवरि य दुर्गुणो वासो भावण्या दाररक्खणया ॥ ८२७ २४ २३ २२ २१ २० १९१८ १७ १६ १५ १४ १३ २८८ | २८८ | २८८ | २८८ | २८८ २८८ २८८ २८८ | २८८ | २८८ | २८८ २८८ १२ 99 १० ९ ८ ७ ४ ३ ५ 9 ६ ५ २८८ | २८८ | २८८ २८८ | २८८ | २८८ | २८८ | २८८ २८८ २८८ ५७६ १४४ । तदिवसाला समतां । ततो भूमी छुट्टी दसविहकप्पदमेहिं संपूण्णा । णियणियधयभूमीणं वाससमा कप्पतरुभूमी ॥ ८२८ २३१ | २२० २०९ १९८ १८७ १७६ १६५ | १५४ १४३ २८८ | २८८ २८८ २८८ २८८ २८८ २८८ २८८ २८८ २६४ २५३ | २४२ २८८ २८८ २८८ ६६ ५५ ४४ ३३ ५५ ४४ २८८ | २८८ | २८८ २८८ | २८८ २८८ | २८८ | २८८ | २८८ ५७६ | ५७६ पाणंगतूरियंगा भूसणवत्थंगभोयगंगा य । आलयदीवियैभायणमालातेयंगया तरभो ॥ ८२९ १३२ | १२१ ११० ९९ ८८ ७७ २८८ कत्थ वि वरवावीओ कमलुप्पलकुमुद परिमलिल्लाओ। सुरणरमिहुणतणुग्गदकुंकुमपंकेहिं पिंजरिजलाओ ।। ८३० कत्थ वि हम्मा रम्मा कीडणसालाओ कत्थ वि वराओ । कवि पेक्खणसाला गिज्जंतजिर्णिदजयचरिया || ८३१ बहुभूमीभूयासवे वरविविहरयणणिम्मविदा । एदे पंतिक्रमेणं सोते कप्पभूमीसु ॥ ८३२ इसके आगे चांदी के समान वर्णवाला तीसरा कोट अपने धूलिसाल कोटके ही सदृश होता है । परन्तु यहां इतनी विशेषता है कि इस कोटका विस्तार दूना और द्वाररक्षक भवनवासी देव होते हैं || ८२७ ।। तीसरे कोटका वर्णन समाप्त हुआ । इसके आगे छठी कल्प भूमि है, जो दश प्रकारके कल्पवृक्षोंसे परिपूर्ण और अपनी अपनी ध्वजभूमियोंके विस्तार के सदृश विस्तारवाली होती है ॥ ८२८ ॥ इस भूमिमें पानांग, तूर्यांग, भूषणांग, वस्त्रांग, भोजनांग, आलयांग, दीपांग, भाजनांग, मालांग और तेजांग, ये दश प्रकारके कल्पवृक्ष होते हैं || ८२९ ॥ उक्त भूमिमें कहीँपर कमल, उत्पल और कुमुदोंकी सुगंध से परिपूर्ण एवं देव और मनुष्ययुगलोंके शरीर से निकले हुए केशरके कर्दमसे पीत जलवाली उत्तम वापिकायें, कहीं पर रमणीय प्रासाद, कहीं पर उत्तम क्रीड़नशालायें, और कहीं पर जिनेन्द्र देवके विजयचरित्र के गीतोंसे युक्त प्रेक्षणशालायें होती हैं ॥ ८३०-८३१ ॥ ये सब हर्म्यादिक बहुत भूमियों ( खण्डों ) से भूषित और उत्तम विविध प्रकारके रत्नोंसे निर्मित होते हुए पंक्तिक्रमसे इन कल्पभूमियोंमें शोभायमान होते हैं || ८३२ ॥ १ ब दुगुणा २ ब सम्मत्ता ३ द आलयवीरिय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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