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________________ -४. ८३९ ] चउत्थो महाधियारो [ २५३ चत्तारो चत्तारो पुवादिसु' महा णमेरुमंदारा । संताणपारिजादा सिद्धत्या कप्पभूमीसुं ॥ ८३३ सब्वे सिद्धत्थतरू तिप्पायारा तिमेहलसिरत्था । एक्केकस्स य तरुणो मूले चत्तारि चत्तारि ॥ ८३४ सिद्धाणं पडिमाओ विचित्तपीढाओ रयणमइयाओ। वंदणमेत्तणिवारियदुरंतसंसारभीदीओ ॥ ८३५ सालत्तयपरिवेढियतिपीढउवरम्मि माणथंभा य । चत्तारो चत्तारो सिद्धत्थतरुम्मि एकेके ॥ ८३६ कप्पतरू सिद्धत्था कीडणसालाओ तासु पासादा । णियणियजिणउदयेहिं बारसगुणिदेहि समउदया ॥ ८३७ ६०००। ५४०० । ४८००। ४२००। ३६००। ३०००। २४०० । १८००। १२००। १०८० । ९६० । ८४० । ७२० । ६००। ५४० । ४८०। ४२० । ३६० । ३००।२४०। १८०।१२० । २७ । २१ । । छ?मतरुखेत्ताओ सम्मत्ता । कप्पतरुभूमिपणधिसु वीहिं पडि दिन्वरयणणिम्मविदा । चउ चउ णट्टयसाला णियचेत्ततरूहि सरिसउच्छेहो ॥ ८३८ ६०००। ५४००। ४८०० । ४२००।३६००।३०००।२४००। १८००। १२००। १०००। ९६० । ८४० । ७२० । ६००।५४० । ४८०। ४२० । ३६०।३००।२४०। १८० । १२० । २७ । २१ । पणभूमिभूसिदाओ सव्वाओ दुतीसरंगभूमीओ। जोदिसियकण्णयाहिं पणञ्चमाणाहिं रम्माओ ॥ ८३९ । णट्टयसाला समत्ता। कल्पभूमियोंके भीतर पूर्वादिक दिशाओंमें नमेरु, मंदार, संतानक और पारिजात, ये चार चार महान् सिद्धार्थ वृक्ष होते हैं ॥ ८३३ ॥ ये सब सिद्धार्थ वृक्ष तीन कोटोंसे युक्त और तीन मेखलाओंके ऊपर स्थित होते हैं। इनमेंसे प्रत्येक वृक्षके मूलभागमें विचित्र पीठोंसे संयुक्त और वंदना करनेमात्रसे ही दुरन्त संसारके भयको नष्ट करनेवाली ऐसी रत्नमय चार चार सिद्धोंकी प्रतिमायें होती हैं ॥ ८३४-८३५ ॥ एक एक सिद्धार्थ वृक्षके आश्रित, तीन कोटोंसे वेष्टित पीठत्रयके ऊपर चार चार मानस्तम्भ होते हैं ॥ ८३६ ॥ कल्पभूमियोंमें स्थित सिद्धार्थ कल्पवृक्ष, क्रीडनशालाएं और प्रासाद बारहसे गुणित अपने अपने जिनेन्द्रकी उंचाईके समान उंचाईवाले होते हैं ॥ ८३७ ॥ । छठे तरुक्षेत्रोंका वर्णन समाप्त हुआ। कल्पतरुभूमिके पार्श्वभागोंमें प्रत्येक वीथीके आश्रित दिव्य रत्नोंसे निर्मित और अपने चैत्यवृक्षोंके सदृश उंचाईवाली चार चार नाट्यशालायें होती हैं ॥ ८३८ ॥ सब नाट्यशालायें पांच भूमियोंसे विभूषित, बत्तीस रंगभूमियोंसे सहित और नृत्य करती हुई ज्योतिषी कन्याओंसे रमणीय होती हैं ॥ ८३९ ॥ __ नाट्यशालाओंका वर्णन समाप्त हुआ। १ द पुव्वादिसुहाण , २ द सिद्धता. ३ द तिमेहलसरिच्छा. ४ द ब पासादो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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