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________________ -४. ८१६] चउत्थो महाधियारो [ २४९ सहिदा वरवावीहिं कमलुप्पलकुमुदपरिमलिल्लाहिं'। सुरणरमिहणतणुग्गदकुंकुमपंकेहिं पिंजरजलाहिं ॥८१० कत्थ वि हम्मा रम्मा कीडणसालाओ कत्थ वि वराभो । कत्थ वि णयसाला णच्चंतसुरंगणाइण्णा ॥१॥ बहभूमीभूसणया सव्वे वरविविहरयणणिम्मविदा । एदे पंतिकमेणं उववणभूमीसु सोहंति ॥ ८१२ ताणं हम्मादीणं सव्वेसुं होंति समवसरणेसुं । णियणियजिणउदएहिं बारसगुणिदेहि समउदया ॥ ८१३ णियणियपढमखिदीणं जेत्तियमेत्तं हु रुंदपरिमाणं । णियणियवणभूमीणं तेत्तियमेत्तं हवे दुगुणं ॥ ८१४ २६४ /२५३ / २४२ /२३१ २२० २०९) १९८/१८७१७६ | १६५/ १५४ | १४३ २८८ २८८ २८८/२८० २८० | २८८ २८८ | २८८२८८/२८८२८८/२८८ १३२ १२१ ११. ९९ ८८७७ ६६ । ५५ | ४४ | ३३ ५५ ४४ । २८८/२८८ | २८८/२८८२८८२८८ २८८२८८२८८ २८८५७६ ५७६ । तुरिमवणभूमी सम्मत्ता। दोहोसुं पासेसु सव्ववणप्पणिधिसब्ववीहीण । दोद्दो णट्टयसाला ताण पुढं आदिमट्टसालासु ॥ ८१५ भावणसुरकण्णाओ णते कप्पवासिकण्णाओ। अग्गिमभडसालासुं पुव्वा व सुवण्णा सध्वा ॥ ८१६ ।णट्टयसाला सम्मत्ता । ये मानस्तम्भ कमल, उत्पल, और कुमुदोंकी सुगन्धिसे युक्त तथा देव एवं मनुष्ययुगलोंके शरीरसे निकली हुई केशरके पंकसे पीत जलवाली उत्तम वापियोंसे सहित होते हैं ॥८१०॥ वहां कहींपर रमणीय भवन, कहीं उत्तम क्रीडनशाला, और कहीं नृत्य करती हुई देवांगनाओंसे आकीर्ण नाट्यशालायें होती हैं ॥ ८११ ॥ बहुत भूमियोंसे ( खण्डोंसे) भूषित तथा उत्तम और नाना प्रकारके रत्नोसे निर्मित ये सब भवन पंक्तिक्रमसे उपवन भूमियोंमें शोभायमान होते हैं ।। ८१२ ॥ सब समवसरणोंमें इन हादिकोंकी उंचाई बारहसे गुणित अपने अपने तीर्थंकरोंकी उंचाईके बराबर होती है ॥ ८१३ ॥ अपनी अपनी प्रथम पृथिवीके विस्तारका जितना प्रमाण होता है, उससे दूना अपनी अपनी उपवन भूमियोंके विस्तारका प्रमाण होता है ॥ ८१४ ॥ चतुर्थ वन भूमिका कथन समाप्त हुआ। सब वनोंके आश्रित सब वीथियोंके दोनों पार्श्वभागोंमें दो दो नाट्यशालायें होती हैं । इनमेंसे आदिकी आठ नाट्यशालाओंमें भवनवासिनी देवकन्यायें और इससे आगेकी आठ नाटयशालाओंमें कल्पवासिनी कन्यायें नृत्य किया करती हैं । इन नाटयशालाओंका सुन्दर वर्णन पूर्वके समान ही है ॥ ८१५-८१६ ॥ नाट्यशालाओंका कथन समाप्त हुआ। १द परिमलुल्लाहिं. २ब सुरंगणाइगणा. ३ बसवर्सि. ४ बणियजिण जिण. ५ द चरिमवण', ६ दब पुवासुरवण्णणा. TP. 32 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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