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________________ २३६] तिलोयपण्णत्ती [४. ७३२ णियणियजिणेसाणं देहुस्सेहेण चउहि गुणिदेण । चरियट्टायचेचइयोणं वेदीण उस्सेहो ॥ ७३२ २०००। १८०० । १६००। १४००।१२०० । १०००। ८००। ६००। ४०० । ३६० । ३२० । २८० । २४० । २००। १८० । १६० । १४० । १२० । १०० । ८० । ६० । ४० हत्थाणि ३६ । २८।। ।वीही समत्ता। सवाणं बाहिरए धूलीसाला विसालसमवहा । विप्फुरियपंचवण्णा मणुसुत्तरपम्वदायारा ॥ ७३३ चरियद्यालयरम्मा पयलपदायाकलप्पकमणिज्जा । तिहुवणविम्हयजणणी चउहि दुवारहिं परिअरिया ॥ ७३४ विजयं ति पुव्वदार दक्खिणदारं च वइजयंतं ति । पच्छिमउत्तरदारा जयंतअपराजिदा णामा ॥ ७३५ एदे गोउरदारा तवणीयमया तिभूमिभूसणया । सुरणरमिहुणसणाहा तोरणणचंतमणिमाला ॥ ७३६ एकेकगोउराणं बाहिरमज्झम्मि दारदो पासे । बाउलया वित्थिण्णा मंगलणिहिधूवघडभरिदा ॥ ७३७ भिंगारकलसदप्पणचामरधयवियणछत्तसुपइट्ठा । इय अट्ट मंगलाई अट्टत्तरसयजुदाणि एक्केक्कं ॥ ७३८ कालमहकालपंडू माणवसंखा य पउमणइसप्पा । पिंगलणाणारयणा अट्टत्तरसयजुदाणि णिहि एदे ॥ ७३९ मार्ग व अट्टालिकाओंसे रमणीक वेदियोंकी उंचाई अपने अपने जिनेन्द्रोंके शरीरके उत्सेधसे चौगुनी होती है ।। ७३२ ॥ ___ वीथियोंका वर्णन समाप्त हुआ। सबके बाहिर पांचों वर्गोंसे स्फुरायमान, विशाल एवं समान गोल, मानुषोत्तर पर्वतके आकार धूलिसाल नामक कोट होता है ॥ ७३३ ॥ उपर्युक्त धूलिसाल कोट मार्ग व अट्टालिकाओंसे रमणीय, चंचल पताकाओंके समूहसे सुन्दर, तीनों लोकोंको विस्मित करनेवाला, और चार द्वारोंसे युक्त होता है ॥ ७३४ ॥ इन चार द्वारों से पूर्वद्वारका नाम विजय, दक्षिणद्वारका नाम वैजयन्त, पश्चिमद्वारका नाम जयन्त और उत्तरद्वारका नाम अपराजित होता है ॥ ७३५॥ ये चारों गोपुरद्वार सुवर्णसे निर्मित, तीन भमियोंसे भूषित, देव एवं मनुष्योंके मिथुनोंसे ( जोडोंसे ) संयुक्त और तोरणोंपर नाचती हुई ( लटकती हुई ) मणिमालाओंसे शोभायमान होते हैं ।। ७३६॥ प्रत्येक गोपुरके बाहिर और मध्य भागमें द्वारके पार्श्वभागोंमें मंगलद्रव्य, निधि और धूप घटसे युक्त विस्तीर्ण पुतलियां होती हैं ॥ ७३७ ॥ ___ झारी, कलश, दर्पण, चामर, ध्वजा, व्यजन, छत्र और सुप्रतिष्ठ, ये आठ मङ्गलद्रव्य हैं । इनमें से प्रत्येक एकसौ आठ होते हैं ॥ ७३८ ।। काल, महाकाल, पाण्डु, माणवक, शंख, पद्म, नैसर्प, पिंगल और नानारत्न, ये नव निधियां प्रत्येक एकसौ आठ होती हैं ॥ ७३९ ॥ १ द ब जिणेसठाणं, २ द ब 'चेत्तइयाण. ३ द व पुव्वाणि. ४ ब सम्मत्ता. ५ ब विसाला. पुव्वदारा. ६द्ब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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