________________
-१.६४५]
चउत्थो महाधियारो
[२२३
सोणियसुक्कुप्पाइयदेहो दुक्खाइ गम्भवासम्मि । सहिदूण दारुणाई चिट्ठो पावाई कुणइ पुणो॥५. .. वाहिणिहाणं देहो बहुपोससुपोसियो वि सयाई । अस्थी पवणपणोल्लियपायवदलचंचलसहायो॥ तारुण्णं तडितरलं विसयाहिरत्तं विरसवित्थारा । अत्था अणथमूलं अविचारियसुंदरं सम्वं ॥ ६३९ । मादा पिदा कलत्तं पुत्ता बंधू य इंदजाला य । दिट्टपणटाइ खणे मणस्स दुसहाई सल्लाई ॥ ६४० पत्ता यथावहिं सोक्खं भावेहिं णिञ्चगरुवाइं । दुक्खाइ माणसाइं देवगदीए अणुभवंति ॥ ६४१ चइदूण चउगदीओ दारुणदुव्वारदुक्खखाणीओ । परमाणंदणिहाणं णिव्वाणं आसु बच्चामो ॥ ६५२ तम्हा मोक्खस्स कारणदारवदीए णेमी सेसा तेवीस तेसु तित्थयरा । णियणियजादपुरेसुं गिण्हंति जिणिददिक्खाई॥६॥ चेत्तासिदणवमीए तदिए पहरम्मि उत्तरासाढे । सिद्धत्थवणे उसहो उववासे छट्टमम्मि णिकंतो॥६४४ माघस्स सुक्कणवमीअवरण्हे रोहिणीसु अजियजिणो । रम्मे सहेदुगवणे अट्रमभत्तम्मिणिकतो॥ ६४५ .
शोणित और शुक्रसे उत्पन्न हुई देहसे युक्त जीव महा भयानक दुःखोंको सहकर निर्लज्ज हुआ फिरसे पापोंको करता है ॥ ६३७ ॥
बहुतसे पुष्टिकारक पदार्थोंसे अच्छी तरह सैकडों प्रकारसे पोषा गया भी यह व्याधियोंका निधान भूत शरीर पवनसे प्रेरित वृक्षके पत्तेके समान चंचल स्वभाववाला है ॥ ६३८ ॥
विषयाभिरक्त तारुण्य बिजली के समान चंचल है और अर्थ अर्थात् इंद्रियविषय नीरसतापूर्ण हैं, अनर्थके मूलकारण हैं इसप्रकार ये सब अनर्थके मूल और अविचारितरम्य ही हैं ॥ ६३९ ॥
माता, पिता, कलत्र, पुत्र और बन्धुजन ये सब इन्द्रजालके समान क्षण भरमें देखते देखते नष्ट होते हुए मनके लिये दुस्सह शल्य हैं ॥ ६४०॥
देवगतिमें सुखको प्राप्त हुए जीव उस सुखके विनाशकी चिन्तारूप भावोंसे नित्य ही महान् मानसिक दुःखोंका अनुभव किया करते हैं ॥ ६४१ ॥
अत एव दारुण और दुर्निवार दुःखोंकी खानिभूत इन चारों गतियोंको छोड़कर हम उत्कृष्ट आनन्दके निधानस्वरूप मोक्षको शीघ्र ही प्राप्त करें ॥ ६४२ ॥
इसीलिये मोक्षके निमित्त -----
उन चौबीस तीर्थंकरों से भगवान् नेमिनाथ द्वारावती नगरीमें और शेष तेईस तीर्थकर अपने अपने जन्मस्थानोंमें जिनेन्द्रदीक्षाको ग्रहण करते हैं ॥ ६४३ ॥
भगवान् ऋषभदेव चैत्रकृष्णा नवमीके तीसरे पहर उत्तराषाढ नक्षत्रमें सिद्धार्थवनमें षष्ठ उपवासके साथ दीक्षित हुए ॥ ६४४ ॥
___ अजित जिनेन्द्र माघशुक्ला नवमीके दिन अपराह्न कालमें रोहिणी नक्षत्रके रहते सुन्दर सहेतुकवन में अष्टम भक्तके साथ दीक्षित हुए । ६४५ ।।
१द व सुकंपाइयदाहो. २द दिट्ठो, ब विट्ठो. ३ द ब वाहिणिणारं. ४ द प सयधारं. ५ द ब पणोच्चिय. ६ दब सहावा. ७ व खणो. ८ दब दुसमाइं. ९ दब गरवादि. १० ब दारवदीये. ११ द ब णिकता. १२ द ब सुहेदुगवणे. ..
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org