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________________ २०६] तिलोयपण्णत्ती [ ४. ५०५ कुसला दाणादीसुं संजमतवणाणवंतपत्ताणं। णियजोग्गअणुढाणा मदवअज्जवगुणेहिं संजुत्ता ।। ५०५ मिच्छत्तभावणाए भोगाउंबंधिऊण ते सब्वे । पच्छा खाइयसम्मं गेण्हंति जिणिदचलणमूलम्हि ॥ ५०६ णियजोग्गसुदं पढिदो खीणे आउम्हि ओहिणाणजुदा । उप्पज्जिदूण भोगे केई णरा ओहिणाणेणं ॥ ५०७ जादिभरणेण केई भोगमणुस्साण जीवणोवायं । भासंति जेण तेणं मगुणो भणिदा मुणिंदेहिं ॥ ५०८ कुलधारणादु सब्वे कुलधरणामेण भुवणविक्खादा । कुलकरणम्मि य कुसला कुलकरणामेण सुपसिद्धा ॥ ५०९ एत्तो सलायपुरिसा तेसट्टी सयलभुवणविक्खादा । जायंति भरहखेत्ते णरसीहा पुण्णपाकेण ॥ ५१० तित्थयरचकबलहरिपडिसत्तू णाम विस्सुदा कमसो। बिउणियबारसबारसपयत्थणिधिरंधसंखाए ॥ ५११ २४ ।।२।९।९।९। उसहमजियं च संभवमहिणंदणसुमाणामधेयं च । पउमप्पहं सुपासं चंदप्पहपुप्फयंतसीयलए ॥ ५१२ सेयंसवासपुज्जे विमलाणते य धम्मसंती य । कुथुअरमल्लिसवयणमिणेमीपासवडमाणा य॥५१३ पणमह चउवीसजिणे तित्थयरे तत्थ भरहखेत्तम्मि । भव्वाण भवरुक्खं छिंदते णाणपरसूहि ॥ ५१४ वे सब संयम, तप और ज्ञानसे युक्त पात्रों के लिये दानादिकके देने में कुशल, अपने योग्य अनुष्ठानसे संयुक्त,और मार्दव-आर्जव गुणोंसे सहित होते हुए पूर्वमें मिथ्यात्वभावनासे भोगभूमिकी आयुको बांधकर पश्चात् जिनेन्द्रभगवान्के चरणोंके समीप क्षायिक सम्यक्त्वको ग्रहण करते हैं ॥५०५-५०६॥ अपने योग्य श्रुतको पढ़कर इन राजकुमारों से कितने ही आयुके क्षीण होनेपर अवधिज्ञानके साथ भोगभूमिमें मनुष्य उत्पन्न होकर अवधिज्ञानसे, और कितने ही जातिस्मरणसे भोगभूमिज मनुष्योंको जीवनके उपाय बतलाते हैं, इसीलिये मुनीन्द्रोंके द्वारा ये 'मनु' कहे गये हैं ॥ ५०७-५०८॥ . ये सब कुलोंके धारणकरनेसे 'कुलधर' नामसे और कुलोंके करनेमें कुशल होनेसे 'कुलकर' नामसे भी लोकमें प्रसिद्ध हैं ॥ ५०९॥ ___ अब यहांसे आगे ( नाभिराय कुलकरके पश्चात् ) पुण्योदयसे भरत क्षेत्रमें मनुष्योंमें श्रेष्ठ और सम्पूर्ण लोकमें प्रसिद्ध तिरेसठ शलाकापुरुष उत्पन्न होने लगते हैं ॥ ५१० ॥ ये शलाकापुरुष तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण और प्रतिशत्रु, इन नामोंसे प्रसिद्ध हैं । इनमेंसे तीर्थकरोंकी बारहके दुगुणे अर्थात् चौबीस चक्रवर्तियोंकी बारह, बलभद्रोंकी नौ ( पदार्थ ), नारायणोंकी नौ ( निधि ) और प्रतिशत्रुओंकी भी नौ ( रंध्र ) संख्या है ॥ ५११ ॥ तीर्थकर २४ + चक्री १२ + बल. ९ + नारा. ९ + प्रतिशत्रु ९ = ६३ ।। ३. उनमेंसे ऋषभ, अजित, संभव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभैं, पुष्पदन्ते, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुंथु, अर, मल्लि'', सुव्रत, नमि', नेमि , पार्श्व और वर्द्धमान, इन भरत क्षेत्रमें उत्पन्न हुए चौबीस तीर्थङ्करोंको नमस्कार करो। ये ज्ञानरूपी फरसेसे भव्य जीवोंके संसाररूपी वृक्षको छेदते हैं ।। ५१२-५१४ ॥ १ द ब संजव. २ बणियजोगा. ३. द बंधदूण. ४ द ब पचा. ५ द ब पडिदा. ६ द ब जुदो. ७ ब केई. ८ द ब 'पुरिसो. ९ बभवण'. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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