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________________ -४.५०४ ] चउत्थो महाधियारो [२०५ . तस्सि काले होदि हु बालाणं णाभिणालमइदीई। तक्त्तणोवदेसं कहदि मण ते पकुवंति ॥ ४९६ कप्पदमा पणट्टा ताहे विविहोसहीणि सस्साणि । महुररसाइं फलाई पेच्छंति सहावदो धरित्तीसु ॥ ४९७ कप्पतरूण विणासे तिब्वभया भोगभूमिजा मणुवा । सब्वे वि णाभिराज सरणं पविसंति रक्खेत्ति ॥ ४९८ करुणाए णाभिराजो णराण उवदिसदि जीवणोवायं । संजह वणप्फदीणं चोचादीणं फलाइं भक्खाणि ॥ ४९९ सालिजववल्लतुवरीतिलमासप्पहुदिविविहधण्णाई । उवभुजह पियह तहा सुरभिप्पहुदीण दुद्धाणि ॥ ५०० अण्णं बहु उवदेसं देदि दयालू णराण सयलाणं । तं कादूर्ण सुखिदा जीवंते तप्पसादेणं ॥ ५०१ पलिदोवमदसमंसो ऊणो थोवेण पदिसुदिस्साऊ । अममें अडडं तुडियं कमलं णलिणं च पउमपउमंगा ॥ ५.२ कुमुदकुमुदंगणउदा णउदंग पम्वपुव्वकोडीओ । सेसमणूणं आऊ कमसो केई णिरूवेंति ॥ ५०३ पाठान्तरम् । एदे चउदस मणुओ पदिसुदिपहुदी हु णाहिरायंता । पुच्चभवम्मि विदेहे राजकुमारा महाकुले जार्दी ॥ ५०४ उस समय बालकोंका नाभिनाल अत्यन्त लम्बा होने लगा था, इसलिये नाभिराय कुलकर उसके काटनेका उपदश देते हैं और वे भोगभूमिज मनुष्य वैसा ही करते हैं ।। ४९६ ॥ ___ उस समय कल्पवृक्ष नष्ट होगये और पृथिवीपर स्वभावसे ही उत्पन्न हुई अनेक प्रकारकी औषधियां, सस्य ( धान्यादि ) एवं मधुर रसयुक्त फल दिखाई देने लगे ॥ ४९७ ॥ कल्पवृक्षोंके नष्ट होजानेपर तीव्र भयसे युक्त सब ही भोगभूमिज मनुष्य नाभिराय कुलकरकी शरणमें पहुंचे और बोले 'रक्षा करो' ॥ ४९८ ॥ तब करुणापूर्वक नाभिराय उन मनुष्योंको आजीविकाके उपायका उपदेश देते हैं । चोचादिक वनस्पतियोंके भक्षण करने योग्य फलोंका संचय करो ॥ ४९९ ॥ शालि, जौ वल्ल, तूवर, तिल और उड़द इत्यादिक विविध प्रकारके धान्योंको खाओ और गाय आदिकके दूधको पिओ ॥ ५०० ॥ इसके अतिरिक्त दयालु नाभिराय उन सब मनुष्योंको और भी बहुतसा उपदेश देते हैं। तदनुसार आचरण करके वे सब मनुष्य नाभिराय कुलकरके प्रसादसे सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे ॥ ५०१ ॥ कुछ कम पल्योपमके दशवें भागप्रमाण प्रतिश्रुति कुलकरकी आयु थी। इसके आगे शेष तेरह कुलकरोंकी आयु क्रमसे अमम, अडड, त्रुटित, कमल, नलिन, पद्म, पद्मांग, कुमुद, कुमुदांग, नयुत, नयुतांग, पर्व और पूर्वकोटिप्रमाण थी, ऐसा कोई आचार्य कहते हैं ॥ ५०२-५०३ ॥ पाठांतर । प्रतिश्रुतिको आदि लेकर नाभिरायपर्यन्त ये चौदह मनु पूर्वभवमें विदेह क्षेत्रके भीतर महाकुल में राजकुमार थे ॥ ५०४ ॥ १द तादे, व तहि. २ द व विविहोसहीण सत्याणं. ३ द ब तोवरी...विविहवण्णाई. ४ द ब उवभुंजदि. ५ द सुखिदो. ६ द व कुमुदंगणलिणा. ७ द णिरूवंति. ८ प जादो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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