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________________ २०२] तिलोयपण्णत्ती [४. ४७२ रत्तीए ससिबिंब दरिसिय खेलावाणि कादूणं । ताण वक्षणोदेसं सिक्खावह कुणह जदण मि ॥ ४७२ सोऊणं उवएसं भोगणरा तह करंति बालाणं । अच्छिय थोवदिणाई पक्खीणाऊ विलीयंति ॥ ४७३ लोभेणाभिहदाणं सीमंकरपहुदिकुलकरा पंच । ताणं सिक्खणहेदू हा-मा-कारं कुणंति दस्थं ॥ ४७४ अभिचंदे तिदिवगदे दसघणहदअट्ठकोडिहिदपल्ले । अंतरिदे चंदाभो एकारसमो हुवेदि मणू ॥ ४७५ छस्सयद९च्छेहो वरचामीयरसरिच्छतणुवण्णो । दसकोडिसहस्सेहिं भाजिदैपल्लप्पमाणाऊ ॥ ४७६ णिरुवमलावण्णजुदा तस्स य देवी पहावदीणामा। तकाले अदिसीदं होदि तुसारं च अदिवाऊ ॥ ४७७ सीदाणिलफासीदो अइदुक्खं पाविदूण भोगणरा । चंदादीजोदिगणे तुसारछण्णे ण पेच्छति ॥ ४७८ अदिभीदाण इमाणं चंदाभो देदि तस्स उवदेसं । भोगावणिहाणीए जादा कम्मक्खिदी णिअडो॥ ४७९ रात्रिमें चन्द्रमण्डलको दिखलाकर और खिलावन करके उन्हें वचनोपदेश अर्थात् बोलना सिखावो और उनका यत्न (पूर्वक रक्षण ) करो ॥ ४७२ ॥ इस उपदेशको सुनकर भोगभूमिज मनुष्य बालकोंके साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं । अब वे ( युगल ) थोड़े दिन रहकर आयुके क्षीण होने पर विलीन होते हैं ॥ ४७३ ॥ सीमंकरादिक पांच कुलकर लोभसे आक्रान्त उन युगलोंके शिक्षणके निमित्त दण्डके लिये हा (खेदप्रकाशक ) और मा ( निषेधसूचक ) इन दो शब्दोंका उपयोग करते हैं ॥ ४७४ ॥ ___ अभिचन्द्र कुलकरके स्वर्गारोहण करनेपर दसके घन अर्थात् एक हजारसे गुणित आठ करोड़से भाजित पल्यप्रमाण अन्तरालके पश्चात् चन्द्राभ नामक ग्यारहवां मनु उत्पन्न होता है ॥ ४७५ ॥ प. _ _ । उसके शरीरकी उंचाई छहसौ धनुष, शरीरका वर्ण उत्तम सुवर्ण जैसा और आयु दश हजार करोड़से भाजित पल्योपमप्रमाण थी ।। ४७६ ॥ उंचाई द. ६००; आयु प. __ १००००००००००० इस कुलकरके अनुपम लावण्यसे युक्त प्रभावती नामकी देवी थी। उस समय अति शीत, तुषार और अति वायु चलने लगी ॥ ४७७ ॥ । शीत वायुके स्पर्शसे अत्यन्त दुख पाकर वे भोगभूमिज मनुष्य तुषारसे आच्छन्न चन्द्रादिक ज्योतिस्समूहको नहीं देख पाते ॥ ४७८ ॥ ___ इस कारण अत्यन्त भयको प्राप्त हुए उन भोगभूमिज पुरुषोंको चन्द्राभ कुलकर इसका उपदेश देता है, और समझाता है कि भोगभूमिकी हानि होनेपर अब कर्मभूमि निकट आगई है ॥ ४७९ ॥ १ द ब खेलावलाणि. २ द वअणोदीम, ब वअणोवदीगं. ३ द ब लोभेणाभयदाणं. ४ द दंडत्या. ५ द ब दसपुणहद. ६ द दंडुच्छेदो. ७ ब भजिदे. ८ द पासादो. ९ द ब णअदा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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