SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [१७] दुर्भाग्यसे आजकल प्राकृत समझनेवालोंकी संख्या बहुत नहीं है और विशेषतः ऐसे ही पाठकोंके हितार्थ हिन्दी अनुवाद जोडा गया है । जो प्राकृत व हिन्दी दोनों नहीं जानते और केवल संस्कृत जानते हैं उनकी संख्या इतनी अल्प है कि उंगलियोंपर गिनी जा सकती है । उन इन गिने सज्जनोंकी वैयक्तिक शिकायत हमें छाया जोडने तथा प्रन्थका कलेवर व मूल्य बढ़ानेकी ओर प्रोत्साहित करने के लिये पर्याप्त नहीं है । यह सत्य है कि विद्वानोंमें भी प्राकृत ग्रन्थोंको केवल छाया के आधारसे पढने-पढ़ानेकी पद्धति हो गई है। पर इसके फलस्वरूप बडे अनर्थ उत्पन्न हुए हैं, जिनके विरुद्ध सम्पादकोंने कई बार आवाज उठाई है । ऐतिहासिक व भाषात्मक दृष्टिसे भी छाया देना न्यायसंगत नहीं ठहरता । छायाका ऐसा अनर्थकारी प्रभाव पडता है कि बहुतसे पाठक केवल छायाको ही पढ़ते हैं और ग्रंथकारकृत मूल पाठ को चुपचाप छोड बैठते हैं । प्राकृत ग्रन्थोंकी दृष्टि से लापरवाहीके कारण बहुत क्षति हुई है, क्योंकि भाषाकी दृष्टिसे अनेक ग्रन्थोंकी लिपि-परम्परा सावधानीसे सुरक्षित नहीं रक्खी गई । हमें कुछ ऐसे ग्रन्थोंका भी परिचय है, जिनकी हस्तलिखित प्रतियोंमें केवल संस्कृत छाया ही सुरक्षित रही है। उदाहरणार्थ, मद्राससे प्राप्त 'चन्द्रलेखा' नामक प्राकृत सहक ( दृश्यकाव्य-विशेष ) की प्रतिमें केवल संस्कृत छाया उपलब्ध है, मूल प्राकृत पाठ नहीं है । यह छाया देने की प्रणालीका ही फल है कि दिगम्बर पण्डितोंमें प्रायः प्राकृत अध्ययनका अभाव ही हो गया है। ऐसी परिस्थितिमें हम जितने जल्दी ठीक मार्गपर आजाय उतना ही भविष्य की शिक्षाप्रणालीके लिये हितकारी होगा। अत एव सम्पादकोंको यह कहने में कोई संकोच नहीं कि वे छाया न देनेमें सैद्धान्तिक व व्यावहारिक दोनों दृष्टियोंसे अभीष्ट प्रणालीका ही अनुकरण कर रहे हैं। उनका आन्तरिक ध्येय यही है कि विद्वान् ऐसे ग्रन्थोंका परकृत छायापरसे अध्ययन न करके स्वयं ग्रन्थकारद्वारा लिखित मौलिक भाषामें ही अध्ययन करें। जैन संस्कृति संरक्षक संघका तालेबंद सं. २०११ सन १९५५ मार्च अखेर २००५०० जैन सं. सं. संघ खाते ३६३१५॥ मकान खरेदी खाते मराठी साहित्य विभाग ३१२४०6-11 मकान गिरवी खाते ४२२६ रतनबाई जीवराज शिष्यवृत्ति २०७१७२०॥१ डिबेंचर्स-शेअर्स खाते १५१९२॥ लोगोंका देना ८८१॥ ग्रंथ प्रकाशन खाते । ८५७६॥३॥ ग्रंथ विक्री २३१४॥०॥ खुर्ची कपाट-सामान खाते ९०१ पं. जिनदास फडकुले पारितोषिक फंड | ५९७।०॥ पुस्तक खरेदी ६००० मकान दुरुस्ती ४१४९१। प्रामिसरी नोटपर कर्ज १२४२०००। ग्रंथ प्रकाशन के लिये मंजूर ७४९७१ लेना ९६९५॥ श्रीबधघट खाते ३२७५११४-२ 1269 भूल ३२७५१२८ ३२७५१२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy