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जाँय । सम्पादकोंका यह तो दावा ही नहीं है कि उनके द्वारा व्यवस्थित पाठ तथा उसका प्रस्तुत अनुवाद ही इस ग्रन्थका शुद्ध अन्तिम रूप है । यह तो केवल प्रथम प्रयास है और. सम्पादकोंने उपलब्ध सामग्रीकी सीमाके भीतर भरसक प्रयत्न किया है।
- हिन्दी अनुवाद देने में सम्पादकोंका लक्ष्य दो बातोंपर रहा है। एक तो अधिकांश पाठक, विशेषतः जैन समाजके, जो इस ग्रन्थके विषयको धार्मिक श्रद्धाकी दृष्टिसे देखेंगे, वे गुजराती, मराठी, कन्नड या बंगाली जैसी प्रान्तीय भाषाओंकी अपेक्षा हिन्दी भाषा अनुवादका अधिक आदर करेंगे। दूसरे, भारतवर्षकी समस्त प्रचलित भाषाओंमेंसे हिन्दी भाषाको राष्ट्रीय भाषा बननेका निश्चयतः सर्वोच्च अधिकार है और जितना ही हम उसे ऐसे अनुवादोंसे पुष्ट बनावेंगे उतनी ही अधिक भविष्यमें उसकी समृद्धि होगी। प्रस्तुत हिन्दी अनुवाद मूल पाठका यथासंभव शब्दानुगामी है। स्थानाभावसे सम्पादक विषयसम्बन्धी विशेष विवरणमें नही जा सके। जहांपर विषय प्रसंगको स्पष्ट करनेके लिये मूल पाठके अतिरिक्त कुछ विषय जोड़ना या सुधारना आवश्यक प्रतीत हुआ वहां त्रिलोकसार, हरिवंशपुराण, जंबूदीवपण्णत्तिसंगह, महापुराण, लोकप्रकाश, प्रवचनसारोद्धार, क्षेत्रसमास ( लघु व बृहत् ) व बृहत्संग्रहणी आदि ग्रन्थोंके आधारसे विशेषार्थ, उदाहरणके रूपमें, अथवा कोष्टकमें या ' अर्थात् ' पद देकर जोड़ या सुधार किया गया है।
४ विरोध परिहार कितने ही उत्तरदायी स्थानोंसे हमें यह सूचना प्राप्त हुई कि तिलोयपण्णत्तीके पाठके साथ हिन्दी अनुवादके अतिरिक्त संस्कृत छाया भी दी जानी चाहिये। सम्पादक इस सूचनाके सद्भावका आदर करते हैं, किन्तु उन्हें खेदके साथ कहना पड़ता है कि जो इस सूचनाको सिद्धान्तरूपसे प्रस्तुत करते हैं उन्होंने कभी उसकी आवश्यकताके विवेचन करनेका प्रयत्न नहीं किया। अतएव यह प्रश्न खडा हो सकता है कि क्या संस्कृत छाया न देने में सम्पादक अपने कर्तव्यसे व्युत या उसमें शिथिलप्रयत्न हो रहे हैं ? इस प्रश्नका शान्त हृदयसे उत्तर दिया जा सकता है। सिद्धान्ततः तिलोयपण्णत्तिका अध्ययन भिन्न भिन्न पाठक भिन्न भिन्न दृष्टिकोणोंसे कर सकते हैं। धार्मिक पाठक उसे उसके विषयके लिये श्रद्धासे पढ़ेंगे, क्यों कि वह यतिवृषभ जैसे प्राचीन और प्रामाणिक आचार्यकी रचना है। उनके शब्दोंका हमें अवश्य श्रद्धापूर्वक आदर करना चाहिये। उन्होंने यह ग्रन्थ प्राकृतमें रचा है और जहांतक प्राचीन प्रतियोंसे पता चलता है, उन्होंने कही कोई छाया इसमें नहीं दी है। वैयक्तिक शिकायतको व्यापक बनाकर नहीं चलना चाहिये । जो केवल पाली भाषा जानता है उसे यह आशा नहीं करना चाहिये कि किसी संस्कृत ग्रन्थका सम्पादक उसके साथ पालीभाषान्तर जोड़े और न संस्कृतके ज्ञाताको प्राकृत ग्रन्थके साथ संस्कृत छाया दी जाने की आशा करना चाहिये, जब कि स्वयं ग्रन्थकारने कोई छाया नहीं जोड़ी। व्यावहारिक दृष्टि से भी जब हम विचार करते हैं तो ज्ञात होता है कि
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