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________________ १९२ ] तिलोयपण्णत्ती [ ४. ३९१ जह मणुवाणं मोगा तह तिरियाणं हुवंति एदाणं । णियणियजोग्गत्तेणं फलकंदतणंकुरादीणि ॥ ३९१ वग्यादी भूमिचरा वायसपहुदी य खेयरा तिरिया। मंसाहारेण विणा भुंजते सुरतरूण मुहुरफलं ॥ ३९२ हरिणादियतणयचरा तह भोगमहीए तणाणि दिव्वाणि । भुंजंति जुगलजुगला उदयदिणेसम्पहा सम्वे ॥ ३९३ कालम्मि सुसमसुसमे चउकोडाकोडिउवहिउवमाणं । पढमादो हीयते उच्छेहाऊबलद्धितेआई ॥३९४ उच्छेहपहुदि खीणे सुसमो णामेण पविसदे कालो। तस्स पमाणं सायरउवमाण तिणि कोडिकोडीयो । ३९५ सुसमस्सादिम्मि गराणुच्छेहो चउसहस्सचावाणि। दो पल्लपमाणाऊ संपुण्णमियंकसरिसपहा ॥ ३९६ अट्ठावीसुत्तरसयमट्ठी पुट्ठीय होंति एदाणं । अच्छरसरिसा इत्थी तिदससरिच्छा' णरा होंति ॥ ३९७ तस्सि काले मणुवा अक्खप्फलसरिसमामिदआहारं । भुंजति छ?भत्ते समचउरस्संगसंठाणा ॥ ३९८ तस्सि संजादाणं सयणोपरि बालयाण सुत्ताणं । णियअंगुढविलिहणे पंच दिणाणि पवति ॥ ३९९ वहां जिसप्रकार मनुष्योंके भोग होते हैं उसीप्रकार इन तिर्यश्चोंके भी अपनी अपनी योग्यतानुसार फल, कंद, तृण और अंकुरादिरूप भोग होते हैं ॥ ३९१ ॥ वहां व्याघ्रादिक भूमिचर और काकप्रभृति नभचर तिर्यश्च मांसाहारके विना कल्पवृक्षोंका मधुर फल भोगते हैं ॥ ३९२ ॥ ___तथा भोगभूमिमें उदयकालीन सूर्यके समान प्रभावाले समस्त हरिणादिक तृणजीवी पशुओंके युगल दिव्य तृणोंका भक्षण करते हैं ॥ ३९३ ॥ __ चार कोडाकोड़ी सागरोपमप्रमाण सुषमसुषमा कालमें पहिलेसे शरीरकी उंचाई, आयु, बल, ऋद्धि और तेज आदि हीन हीन होते जाते हैं ।। ३९४ ॥ इसप्रकार उत्सेधादिकके क्षीण होनेपर सुषमा नामका द्वितीय काल प्रविष्ट होता है । उसका प्रमाण तीन कोडाकोडी सागरोपम है ।। ३९५ ॥ सुषमाकालके आदिमें मनुष्योंके शरीरका उत्सेध चार हजार धनुष, आयु दो पल्योपमप्रमाण, और प्रभा (शरीरकी कान्ति) पूर्ण चन्द्रमाके सदृश होती है ।। ३९६।। दं. ४०००। ___ इनके पृष्ठभागमें एकसौ अट्ठाईस हड्डियां होती हैं । उस समय अप्सराओं जैसी स्त्रियां और देवों जैसे पुरुष होते हैं ॥ ३९७ ॥ उस कालमें मनुष्य समचतुरस्रसंस्थानसे युक्त होते हुए षष्ठ भक्तमें अर्थात् तीसरे दिन अक्ष ( बहेड़ा ) फलके बराबर अमृतमय आहारको ग्रहण करते हैं ॥ ३९८ ॥ उस कालमें उत्पन्न हुए बालकोंके शय्यापर सोते हुए अपने अंगूठेके चूसनेमें पांच दिन व्यतीत होते हैं ॥ ३९९ ॥ . १ बतणचारा. २ द चउक्कोडा. ३ द ब तेआयं. ४ द ब णरा उच्छेहो. ५ ब सरिता. १६ मविदआहारं. ७ द °विलीहणे. ८ द ब दिणाणेव वञ्चंति, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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