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________________ -४. ४०८ ] उत्थो महाधियारो बइस अत्थिरगमणं थिरगमणकलागुणेण पत्तेक्कं । तारुण्णेणं' सम्मग्गद्दणेणं जंति' पंचदिणं ॥ ४०० एत्तियमेतविसेसं मोत्तूर्ण सेसवण्णणपयारा । सुसमसुसमम्मि काले जे भैणिदा एत्थ वक्तव्वा ॥ ४०१ ) कालम्मि सुसमणामेतियकोडीकोडिउवहिउवमम्मि । पढमादो हायंते उच्छेद । ऊबल द्वितेजादी ॥ ४०२ उच्छे हपहुदिखीणे पविसेदि हु- सुसमदुस्समो कालो । तस्स पमाणं सायरउवमाणं दोणि कोडिकोडीओ ॥ ४०३ तक्कालादिम्मि गैराणुच्छेदो दो सहस्सचावाणि । एक्कपलिदोवमाऊ पियंगुसारिच्छवण्णधरा ॥ ४०४ चट्टी पुट्ठीए णराणणारीण होंति भट्ठी वि । अच्छरसरिसा णारी अमरसमाणो णरो होदि ॥ ४०५ तक्काले ते मणुवा आमलकपमाणममियभाहारं । भुंजंति दिणंतरिया समचउरस्संगसंठाणा ।। ४०६ तस्सि संजादाणं सयणोवरि बालयाण सुत्ताणं । नियभंगुट्ठविलिहणे सत्त दिणाणि पवच्यंति ॥ ४०७ बहसणअत्थिरगमणं थिरगमणकलागुणेण पत्तेक्कं । तारुण्णेणं सम्मग्गहणंजोगेण सत्तदिणं ॥ ४०८ पश्चात् उपवेशन, अस्थिरगमन, स्थिरगमन, कलागुणप्राप्ति, तारुण्य और सम्यक्त्वग्रहणकी योग्यता, इनमेंसे प्रत्येक अवस्थामें उन बालकोंके पांच पांच दिन जाते हैं || ४०० ॥ उपर्युक्त इतनीमात्र विशेषताको छोड़कर शेष वर्णनके प्रकार जो सुषमसुषमा कालमें कहे गये हैं, उन्हें यहांपर भी कहना चाहिये ॥ ४०१ ॥ तीन कोड़ाकोडी सागरोपमप्रमाण सुषमा नामक कालमें ऋद्धि और तेज इत्यादिक उत्तरोत्तर हीन हीन होते जाते हैं ॥ उत्सेधादिकके क्षीण होनेपर सुषमदुषमा काल प्रवेश करता है । उस कालका प्रमाण दो कोडाकोडी सागरोपम है ॥ ४०३ ॥ उस कालके प्रारम्भमें मनुष्योंकी ऊंचाई दो हजार धनुष, आयु एक पल्योपमप्रमाण और वर्ण प्रियंगु फलके समान होता है ॥ ४०४ ॥ [ १९३ पहिलेसे ही उत्सेध, आयु, बल, ४०२ ॥ उस कालमें स्त्री-पुरुषोंके पृष्ठभाग में चौंसठ हड्डियां होती हैं, तथा नारियां अप्सराओंके समान और पुरुष देवोंके समान होते हैं ।। ४०५ ॥ उस कालमें वे मनुष्य समचतुरस्रसंस्थान से युक्त होते हुए एक दिनके अन्तरालसे आंवले के बराबर अमृतमय आहारको ग्रहण करते हैं ॥ ४०६ ॥ उस कालमें उत्पन्न हुए बालकोंके शय्यापर सोते हुए अपने अंगूठेके चूसने में सात दिन व्यतीत होते हैं ॥ ४०७ ॥ इसके पश्चात् उपवेशन, अस्थिरगमन, स्थिरगमन, कलागुणप्राप्ति, तारुण्य और सम्यक्त्वग्रहण की योग्यता, इनमेंसे प्रत्येक अवस्थामें क्रमशः सात सात दिन जाते हैं ॥ ४०८ ॥ १ द तरुणोणं, ब तारुणं. २ द व जोग जुत्ति ३ द ब जो भणिदो. ५ द नियअंगुट्ठालहणे. ६ द व दिणाणं. TP. 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only ४ द न गराउछेहो. www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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