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________________ -४. ३१२] चउत्थो महाधियारो [ १८५ . जंतं जहण्णपरित्ताणतयं तं विरलेदूण एकेकस्स रुवस्स जहण्णपरित्ताणतयं दादण अण्णोण्ण भत्थे कदे उकस्सपरित्ताणतयं अदिच्छिदण जहण्णजुत्ताणतयं गंतूण पडिदं। एवदिशो अभवसिद्धियरासी। तदो एगरूवे भवणीदे जादं उक्कस्सपरित्ताणतयं । तदा जहण्णजुत्ताणतयं सयं वग्गिदं उकस्सजुत्ताणतयं अदिच्छिदूण जहण्णमणंताणतयं गंतूण पडिदं। तदो एगरूवे अवणीदे जादं उकस्सजुत्ताणतयं । तदा ५ जहण्णमणंताणतयं पुवं व वग्गिदसंवग्गि, कदे उक्करसमणताणतयं ण पावदि। सिद्धा णिगोदजीवा वणप्फदि कालो य पोग्गला चेव । सव्वमलोगागासं छप्पेदे पंतपक्खेवा ॥३१२ ताणि पक्खिदण पुत्वं व तिण्णिवारे वग्गिदसंवग्गिदं कदे तदा उकस्समर्णताणतयं ण पावदि। तदा धम्मट्टियं अधम्मट्टियं भगुरुलहुगुणं अणंतं पक्खिविण पुग्वं व तिण्णिवारे वगिदसंवग्गिदं कदे उकस्सअणताणतयं ण उप्पजदि। तदा केवलणाणकेवलदसणस्स वाणंता भागा तस्सुवरि पक्खित्ते उक्करसमणताणतयं उप्पण्णं । अस्थि तं भायणं णस्थि तं दवं एवं भणिदो। एवं वग्गिय उप्पण्णसम्व-१० वग्गरासीणं पंज केवलणाणकेवलदसणस्स अणंतिमभाग होदि तेण कारणेण अस्थि तं भाजणं णस्थित दम्वं । जम्हि जम्हि भणंताणतयं मग्गिजदि तम्हि तम्हि अजहण्णमणुकरसमणताणतयं घेत्तन्वं । कस्स विसभो। केवलणाणिस्स । यह जो जघन्य परीतानन्त है, उसका विरलन करके और एक एक रूपके प्रति जघन्य परीतानन्तको देकर परस्पर गुणा करने पर उत्कृष्ट परीतानन्तका उल्लंघन कर जघन्थ युक्तानन्त जाकर प्राप्त होता है। इतनी ही अभव्यसिद्धराशि है। इस जघन्य युक्तानन्तमें से एक रूप कम करनेपर उत्कृष्ट परीतानन्त होता है। तत्पश्चात् जघन्य युक्तानन्तका एकवार वर्ग करनेपर उत्कृष्ट युक्तानन्तको लांघकर जघन्य अनन्तानन्त जाकर प्राप्त होता है। इसमेंसे एक अंक कम करनेपर उत्कृष्ट युक्तानन्तका प्रमाण होता है । पश्चात् जघन्य अनन्तानन्तको पूर्ववत् वर्गितसंवर्गित करनेपर उत्कृष्ट अनन्तानन्त प्राप्त । नहीं होता। तब इस उत्पन्न राशिमें सिद्ध, निगोद जीव, वनस्पति, काल, पुद्गल और सब अलोकाकाश, ये छह अनन्तप्रक्षेप हैं ॥ ३१२ ॥ इन छहों राशियोंको मिलाकर पूर्वके समान तीनवार वर्गितसंवर्गित करनेपर उत्कृष्ट अनन्तानन्त प्राप्त नहीं होता । तब इस राशिमें, धर्म द्रव्यमें स्थित और अधर्म द्रव्यमें स्थित अनन्त अगुरुलघु गुणको, मिलाकर पूर्वके समान तीनवार वर्गितसंवर्गित करनेपर उत्कृष्ट अनन्तानन्त उत्पन्न नहीं होता। तब केवलज्ञान अथवा केवलदर्शनके अनन्त बहुभागको ( उक्त प्रकारसे प्राप्त राशिसे हीन ) उस पूर्वोक्त राशिमें मिलानेपर उत्कृष्ट अनन्तानन्त उत्पन्न हुआ। वह भाजन है, द्रव्य नहीं है, इसप्रकार कहा गया है। क्योंकि इसप्रकार वर्ग करके उत्पन्न सब वर्गराशियोंका पुंज केवलज्ञान-केवलदर्शनके अनन्तवें भाग है, इसी कारणसे वह भाजन है, द्रव्य नहीं है। जहां जहां अनन्तानन्तका ग्रहण करना हो वहां वहां अजघन्यानुत्कृष्ट अनन्तानन्तका ग्रहण करना चाहिये। यह किसका विषय है ! यह केवलज्ञानीका विषय है। १द ब सव्वं वमलोगागासं. २ दब थप्पेदि. ३ द ब पक्खित्तो. ४द ब वग्गिज्जदि. Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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