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________________ १८४] तिलोयपण्णत्ती [ ४. ३१३ भरहक्खेत्तम्मि इमे अज्जाखंडम्मि कालपरिभागा। अवसाप्पणिउस्सप्पिणिपजाया दोणि होति पुढं ॥३१३ णरतिरियाणं आऊ उच्छेहैविभूदिपहुदियं सम्वं । अबसप्पिणिए हायदि उस्सप्पिणियासु वडेदि ॥ ३१४ भद्धारपल्लसायरउवमा दस होति' कोडकोडीओ । भवसप्पिणिपरिमाणं तेत्तियमुस्सप्पिणीकालो ॥ ३१५ दोण्णि वि मिलिदे कप्पं छब्भेदा होंति तत्थ एक्केकं । सुसमसुसमं च सुसमं तइज्जयं सुसमदुस्समयं ॥ ३१६ दुस्समसुसमं दुस्सममदिदुस्समयं च तेसु पढमम्मि । चत्तारिसायरोवमकोडाकोडीओ परिमाणं ॥ ३१७ सुसमम्मि तिणि जलहीउवमाणं होंति कोडकोडीओ। .... दोण्णि तदियम्मि तुरिमे वादालसहस्सविरहिदो एक्को ॥ ३१८ इगिवीससहस्साणि वासाणिं दुस्समम्मि परिमाणं । अतिदुस्समम्मि कालो तेत्तियमेत्तं मि णादब्वं ॥ ३१९ सुसमसुसमम्मि काले भूमी रजधूमजलणहिमरहिदा । कंटयअब्भसिलाईविच्छिआदिकीडोवसग्गपरिचत्ता ॥३२० णिम्मलदप्पणसरिसों णिदिददब्वेहिं विरहिदा तीए । सिकदा हवेदि दिव्वा तणुमणणयणाण सुहजणणी ॥ ३२१ विप्फुरिदपंचवण्णा सहावमउवा य मधुररसजुत्ता । चउअंगुलपरिमाणा तणे त्ति जाएदि सुरहिगंधडा ॥ ३२२ भरत क्षेत्रके आर्यखण्डमें ये कालके विभाग हैं। यहां पृथक् पृथक् अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीरूप दोनों ही कालकी पर्यायें होती हैं ॥ ३१३ ॥ . - अवसर्पिणी कालमें मनुष्य एवं तिर्यश्चोंकी आयु, शरीरकी उंचाई और विभूति इत्यादिक सब ही घटते तथा उत्सर्पिणी कालमें बढ़ते रहते हैं ।। ३१४ ॥ ___ अद्धापल्योंसे निर्मित दश कोडाकोडी सागरोपमप्रमाण अवसर्पिणी और इतना ही उत्सर्पिणी काल भी है ॥ ३१५ ॥ ___इन दोनोंको मिलानेपर बीस कोडाकोडी सागरोपमप्रमाण एक कल्प काल होता है । अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी से प्रत्येकके छह भेद हैं--- सुषमसुषमा, सुषमा, सुषमदुष्षमा, दुष्षमसुषमा, दुष्षमा और अतिदुष्षमा । इन छहोंमेंसे प्रथम सुषमसुषमा चार कोडाकोडी सागरोपमप्रमाण, सुषमा तीन कोडाकोड़ी सागरोपमप्रमाण, तृतीय दो कोडाकोडी सागरोपमप्रमाण, चतुर्थ व्यालीस हजार वर्ष कम एक कोडाकोड़ी सागरोपमप्रमाण, पंचम दुष्षमा इक्कीस हजार वर्षप्रमाण और अतिदुष्षमा काल भी इतने ही ( इक्कीस हजार वर्ष) प्रमाण जानना चाहिये ॥ ३१६-३१९॥ सुषमासुषमा कालमें भूमि रज, धूम, अग्नि और हिमसे रहित, तथा कण्टक, अभ्रशिला (बर्फ), आदि एवं विच्छ्र आदिक कीड़ोंके उपसोंसे रहित होती है ॥ ३२० ॥ इस कालमें निर्मल दर्पणके सदृश और निन्दित द्रव्योंसे रहित दिव्य बालु तन, मन और नयनोंको सुखदायक होती है ॥ ३२१ ।। उस पृथिवीपर पांच प्रकारके वर्णो से स्फुरायमान, स्वभावसे मृदुल, मधुर रससे युक्त, सुगन्धसे परिपूर्ण, आर चार अंगुलप्रमाण ऊंचे तृण उत्पन्न होते हैं ॥ ३२२ ॥ १द पविभागा. २ ब उच्छेहा. ३ द हुंति. ४ द सुसुम . ५ द ब दुस्सहम्मि. ६ द काल . ७ द व भूमि. ८ द ब सलाइं. ९ व सरसा. १० द व दवा. ११ द ब भणं ति. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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