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________________ - ४. ३१० ] उत्थो महाधियारो [ १८१ असंखेज्जयं वेत्तव्वं । जं तं जहण्णजुत्तासंखेज्जयं तं सयं वग्गिदो उक्कस्सजुत्तासंखेज्जयं अदिच्छिवून जहणमसंखेज्जा संखेज्जयं गंतूणं पडिदं । तदो एगरूवं अवणीदे जादं उक्करसजुत्तासंखेज्जयं । तदा जहण्णमसंखेज्जासंखेज्जयं दोप्पडिरासिय काढूण एगरासिं सलायपमाणं ठविय एगरासिं विरलेण एक्केकस्स रूवस्स एगपुंजपमाणं दादूण अण्णोष्णन्भत्थं करिय सलायरासिदो एगरूवं अवणेदम्वं । पुणो वि उप्पण्णरा विरलेढूण एक्केक्स्स रूवस्सुप्पण्णरासिपमाणं दादूण अण्णोष्णन्भत्थं काढूण ५ सलाय सिदो एयरूवं अवणेदव्वं । एदेण कमेण सलायरासी णिट्ठिदा । णिट्टियतदणंतररासिं दुपडि सि काढूण एयपुंजं सलायं ठविय एयपुंजं विरलिदूण एक्केकस्स रूवस्स उप्पण्णरासिं दादूण अण्णोष्णन्भत्थं काढूण सलायरासिदो एवं रूवं भवणेदग्वं । एदेण सरूपण बिदियसलायपुंर्ज समत्तं । सम्मत्तकाले उप्पण्णरासिं दुप्पडिरासिं काढूण एयपुंजं सलायं ठविय एयपुंजं विरलिदूण एक्केक्स्स रूत्रस्स उप्पण्णरासिपमाणं दादूण अण्णोष्णन्भत्थं काढूण सलायरासीदो एयरूवं' श्रवणेदव्वं । १० एदेण कमेण तदियपुंजं णिट्ठिदं । एवंकदे' उक्करसभसंखेज्जासंखेज्जयं ण पावदि । धम्माधम्मलो गागासएगजीवपदेसा चत्तारि वि लोगागासमेत्ता, पत्तेगसरीरबादरपदिट्ठिया एदे दो वि ( कमसो असंखेज्जलोगमेत्ता युक्तासंख्यात है, उसका एकवार वर्ग करनेपर उत्कृष्ट युक्तासंख्यातको लांघकर जघन्य असंख्यातासंख्यात प्राप्त होता है। इसमेंसे एक रूप कम करदेनेपर उत्कृष्ट युक्तासंख्यात हो जाता है। फिर जघन्य असंख्याता संख्यातकी दो प्रतिराशियां करके उनमेंसे एक राशिको शलाकाप्रमाण स्थापित करके और एक राशिका विरलन करके एक एक रूपके प्रति एक एक पुंजप्रमाण देकर परस्पर गुणा करके शलाकाराशिमेंसे एक अंक कम करदेना चाहिये, इसप्रकार जो राशि उत्पन्न हो उसको फिरसे विरलित करके एक एक अंकके प्रति उत्पन्न राशिके प्रमाणको देकर और परस्पर गुणा करके शलाकाराशिमेंसे एक अंक और कम करना चाहिये। इसी क्रमसे शलाकाराशि समाप्त हो गई । उस राशिकी समाप्तिके अनन्तर उत्पन्न हुई राशिप्रमाण दो प्रतिराशियां करके उनमें से एक पुंजको शलाकारूपसे स्थापित करके और एक पुंजको विरलित करके एक एक अंकके प्रति उत्पन्न राशिको देकर परस्पर गुणा करनेके पश्चात् शलाकाराशिमेंसे एक रूप कम करना चाहिये । इस प्रक्रिया से द्वितीय शलाकाराशि समाप्त हो गई । उसकी समाप्तिकालमें उत्पन्न राशिप्रमाण दो प्रतिराशियां करके उनमें से एक पुंजको शलाकारूपसे स्थापित करके और एक पुंजका विरलन करके एक एक अंक के प्रति उत्पन्न राशिप्रमाणको देकर परस्पर गुणा करनेपर शलाकाराशिमेंसे एक अंक कम करना चाहिये । इस क्रम से तृतीय पुंज समाप्त हो गया। ऐसा करनेपर भी उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात प्राप्त नहीं होता । तब धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, लोकाकाश और एक जीव, इन चारोंके प्रदेश, जो लोकाकाशप्रमाण हैं उनको, तथा प्रत्येकशरीर और बादरप्रतिष्ठित ( अप्रतिष्ठित प्रत्येकराशि और प्रतिष्ठित प्रत्येक राशि ), जो दोनों क्रमशः असंख्यात लोकप्रमाण हैं, इन छहों असंख्यातराशियों को पूर्व १ द सलायममाण, बसलायासणाम २ द विरलोदूण. ३ द ब अण्णोष्णमंत्तप्पो. ६ द ब कदो. ५ द ब एयरुवस्स. रासप्रमाणं होदि. Jain Education International ४ द ब यरूव. ७ द ब किंचूणसायरोवमं विरलेदूण विभंगं कादूण अण्णोष्णन्भत्थे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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