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________________ १७८ ] तिलोयपण्णत्ती [४. ३०१ भडं चउसीदिगुणं अममंगं होदि तं पि गुणिदग्वं । चउसीदीलक्खेहिं अमम णामेण णिहिटुं ॥३०॥ अममं चउसीदिगुणं हाहंगं होदि तं पि गुणिदन्वं । चउसीदीलक्खेहिं हाहाणामं समुहिटुं॥ ३०२ हाहाचउसीदिगुणं हूहंगं होदि तं पि गुणिदन्वं । चउसीदीलक्खेहिं हूहूणामस्स परिमाणं ॥ ३०३ हूहूचउसीदिगुणं एकलदंग हुवेदि गुणिदं तं । चउसीदीलक्खहि परिमाणमिदं लदाणामे ॥ ३०४ चउसीदिहदलदाए महालदंग हुवेदि गुणिदं तं । चउसीदीलक्खेहि महालदाणाममुदि] ॥ ३०५ चउसीदिलक्खगुणिदा महालदादो हुवेदि सिरिकप्प। चउसीदिलक्खगुणिदं तं हत्थपहेलिदं णाम ॥ ३०६ हत्थपहेलिदणाम गुणिदं चउसीदिलक्खवासहिं । अचलप्पणाम चेओ कालं कालाणुवेदिणिहिट्ठ॥ ३०७ एकत्तीसट्टाणे चउसीदि पुह पुह टुवेदूर्ण । अण्णोण्णहदे लद्धं अचलप्पं होदि णउदिसण्णंग ॥ ३०८ ८४ । ३१।१०। एवं एसों कालो संखेजो बच्छराण गणणाए । उकस्सं संखेनं जावं तावं पवत्तमो॥३०९ चौरासीसे गुणित अटटप्रमाण एक 'अममांग' होता है । इसको चौरासी लाखसे गुणा करनेपर 'अमम' नामसे निर्दिष्ट किया गया है ॥ ३०१ ॥ चौरासीसे गुणित अममप्रमाण एक 'हाहांग' होता है। इसको चौरासी लाखसे गुणा करनेपर 'हाहा' नामक कहा गया है ॥ ३०२ ॥ हाहाको चौरासीसे गुणा करनेपर एक 'हूहांग' होता है । इसको चौरासी लाखसे गुणा करनेपर 'हूहू' नामक कालका प्रमाण समझना चाहिये ॥ ३०३ ॥ चौरासीसे गुणित हूहूका एक 'लतांग' होता है । इसको चौरासी लाखसे गुणा करनेपर यह 'लता' नामक प्रमाण उत्पन्न होता है ॥ ३०४ ।। ___ चौरासीसे गुणित लताप्रमाण एक 'महालतांग' होता है । इसको चौरासी लाखसे गुणा करनेपर 'महालता' नाम कहा गया है ॥ ३०५॥ __चौरासी लाखसे गुणित महालताप्रमाण एक 'श्रीकल्प' होता है । इसको चौरासी लाखसे गुणा करनेपर 'हस्तप्रहेलित' नामक प्रमाण उत्पन्न होता है ॥ ३०६ ॥ ___ चारासी लाख वर्षोंसे गुणित हस्तप्रहेलितप्रमाण एक 'अचलात्म' नामका काल होता है, ऐसा कालाणुओंके जानकार अर्थात् सर्वज्ञ भगवान्ने निर्दिष्ट किया है ॥ ३०७ ॥ इकतीस स्थानोंमें पृथक् पृथक् चौरासीको रखकर परस्पर गुणा करनेपर 'अचलात्म' का प्रमाण प्राप्त होता है, जो नब्बै शून्यांकरूप है ॥ ३०८ ॥ इसप्रकार यह संख्यात काल वर्षों की गणनाद्वारा उत्कृष्ट संख्यात जबतक प्राप्त हो तबतक ले जाना चाहिये ॥ ३०९ ॥ १ 'द लतंग, ब°लतांगं. २ द सिरिकंप, ब सिरकंपं. ३ द अचलप्पं णामदओ. ४ द कालाउ हवेदि. ५ द ब णिद्दिट्ठा. ६ द णवदी. ७ ब एवं सो. ८ द व जावलतोवं. ९ब पव्वत्तं उ. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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