SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -४. २८३ ] चउत्थो महाधियारो [ १७५ गिरिउवरिमपासादे वसहो णामेण वेतरो देवो । विविहपरिवारसहिदो उवभुंजदि विविहसोक्खाई ॥ २७५ एकपलिदोवमाऊ दसचावसमाणदेहउच्छेहो । पिहुंवच्छो दीहभुजो' एसो सव्वंगसोहिल्लो ॥ २७६ । छक्खंडं गदं । तस्सि अज्जाखंडे णाणाभेदेहिं संजुदो कालो । वह तस्स सरूवं वोच्छामो आणुपुष्वीए ॥ २७७ पासरसगंधवण्णवैदिरित्तो अगुरुलहुगसंजुत्तो । वत्तणलक्खणकलियं कालसरूवं इमं होदि ॥ २७८ कालस्स दो वियप्पा मुक्खामुक्खा हुवंति एदेसुं । मुक्खाधारबलेणं अमुक्खकालो पयट्टेदि ॥ २७९ जीवाण पुग्गलाणं हुवंति परियट्टणाइ विविहाई । एदाणं पज्जाया वटुंते मुक्खकालआधारे ॥ २८० सवाण पयत्थाणं णियमा परिणामपहुदिवित्तीओ । बहिरंतरंगहेदुहि सव्वब्भेदेसु वटुंति ॥ २८१ बाहिरहे कहिदो णिच्छयकालो त्ति सम्वदरिसीहिं । अब्भंतरं णिमित्तं णियणियब्वेसु चेटेदि ॥ २८२ कालस्स भिण्णभिण्णा अण्णुण्णपवेसणेण परिहीणा । पुह पुह लोयायासे चेटुंते संचएण विणा ॥ २८३ पर्वतके उपरिम भवनमें विविध प्रकारके परिवारसे सहित और वृषभ इस नामसे प्रसिद्ध व्यन्तर देव अनेक प्रकारके सुखोंका उपभोग करता है ।। २७५ ।। यह देव एक पल्योपम आयुसे युक्त, दश धनुषप्रमाण शरीरकी उंचाईवाला, विस्तृतवक्षःस्थल, दीर्घबाहु, और सर्वांगसुन्दर है ।। २७६ ॥ छह खण्डोंका वर्णन समाप्त हुआ। उस आर्यखण्डमें नाना भेदोंसे संयुक्त जो काल प्रवर्तता है, उसके स्वरूपको अनुक्रमसे कहते हैं ॥ २७७ ॥ ___ स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णसे रहित, अगुरुलघु गुणसे सहित, और वर्त्तनालक्षणसे संयुक्त, यह कालका स्वरूप है ॥ २७८ ॥ उस कालके मुख्य और अमुख्य इसप्रकार दो भेद हैं। इनमेंसे मुख्य कालके आश्रयसे अमुख्य कालकी प्रवृत्ति होती है ॥ २७९ ॥ ___ जीव और पुद्गलोंमें विविध प्रकार के परिवर्तन हुआ करते हैं । इनकी पर्यायें मुख्य कालके आश्रयसे प्रवर्तती हैं ॥ २८० ॥ सर्व पदार्थोंके समस्त भेदोंमें नियमसे बाह्य और अभ्यन्तर निमित्तोंके द्वारा परिणामादिक (परिणाम, क्रिया, परत्वापरत्व ) वृत्तियां प्रवर्तती हैं ॥ २८१ ॥ सर्वज्ञ देवने सर्व पदार्थोके प्रवर्तनेका बाह्य निमित्त निश्चयकाल कहा है। अभ्यन्तर निमित्त अपने अपने द्रव्योंमें स्थित है ॥ २८२ ॥ अन्योन्यप्रवेशसे रहित कालके भिन्न भिन्न अणु संचयके विना पृथक् पृथक लोकाकाशमें स्थित हैं ॥ २८३ ॥ - १ द वधुषंछो, ब बहुपंछो. २ द ब दिह जो. ३ द ब वणोषदि . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy