SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -४. २४५ ] उत्थो महाधियारो [ १७१ 'विजयडू गिरिगुहाए' संगतूणं जोयणाणि पणुवीसं । पुव्वावरायदाओं उम्मग्गणिमग्गसरिआओ ॥ २३७ णियजलपवाहपडिदं दव्वं गरुत्रं पि णेदि उवरिम्मि । जम्हा तम्हा भण्णइ उम्मग्गा वाहिणी एसा ।। २३८ णियजलभरउवरिगदं दब्बं लहुगं पि दि हेट्ठम्मि । जेणं तेणं भण्णइ एसा सरिया णिमग्गति ॥ २३९ सेलगुद्दाकुंडाणं मणितोरणदार णिस्सरंतीओ । वैडूइरयणविणिम्मिय संकमपहुदीय विच्छिण्णा ॥ २४० वणवेदी परिखित्ता पत्तेक्कं दोणि जोयणायामा । वररयणमया गंगाणइस्स पवहम्मि पविसंति ॥ २४१ पण्णासजोयणाई अधियं गंतु पञ्चयगुहाए । दक्खिणदिसदारेणं खुभिदा भोगीव णिग्गदा गंगा ॥ २४२ निस्सरिणं एसा दक्खिणभर हस्मि रुप्प सेलादो' । उणवीसं सहियसयं आगच्छदि जोयणा अधिया ॥ २४३ ११९ । ३ । १९ आगतूण नियंते पुण्वमुद्दी" मागधम्मि तित्थयरे । चोइससहस्ससरियापरिवारा पविसदे उवहिं ' ॥ २४४ मी अड्डा मेच्छखंडेसु । कुंडजसरि परिवारा हुवंति ण हु अज्जखंडम्मि ॥ २४५ विजयार्द्ध पर्वतकी गुफा में पच्चीस योजन जानेपर उन्मग्ना और निमग्ना ये दो नदियां पूर्व-पश्चिम आई हुई हैं ॥ २३७॥ क्योंकि यह नदी अपने जलप्रवाहमें गिरे हुए भारीसे भारी द्रव्यको भी ऊपर ले आती है, इसलिये यह नदी 'उन्मन्ना' कही जाती है ॥ २३८ ॥ क्योंकि यह अपने जलप्रवाहके ऊपर आयी हुई हलकीसे हलकी वस्तुको भी नीचे ले जाती है, इसीलिये यह नदी 'निमग्ना' कही जाती है ॥ २३९ ॥ ये दोनों नदियां पर्वतीय गुफाकुंडोंके मणिमय तोरणद्वारोंसे निकलकर बढ़ई ( स्थपति ) रत्न से निर्मित संक्रम ( एक प्रकारके पुल ) आदि से विभक्त, वनवेदीसे वेष्टित, प्रत्येक दो योजन प्रमाण आयामसे सहित, और उत्कृष्ट रत्नमय होती हुई गंगा नदीके प्रवाह में प्रवेश करती है । २४०-२४१ ॥ गंगा नदी पचास योजन अधिक जाकर पर्वतकी गुफाके दक्षिणद्वारसे क्रोधित हुए सर्पके समान निकली है ॥ २४२ ॥ यह नदी विजयार्द्ध पर्वत से निकलकर एकसौ उन्नीस योजनोंसे कुछ अधिक दक्षिण भरतमें आती है ॥ २४३ ॥ ११९ । इसप्रकार गंगा नदी दक्षिण भरतमें आकर और पूर्व की ओर मुड़कर चौदह हजार प्रमाण परिवारनदियोंसे युक्त होती हुई अन्ततः मागध तीर्थपर समुद्र में प्रवेश करती है ॥ २४४ ॥ गंगा महानदी की ये कुण्डोंसे उत्पन्न हुई परिवारनदियां ढाई म्लेच्छखण्डोंमें ही हैं, आर्यखण्ड में नहीं हैं ॥ २४५ ॥ १ द गुहासुं गंतूणं. २ ब पुव्वावरा णदाओ. ५ द ब रुंद सेलादो. ६ द व नियंतो. ७ द ब पुव्वमही. ८ द उवरिं. Jain Education International ३द्वत्थ (च्छ) इ. For Private & Personal Use Only ४ द व वित्थिण्णा. www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy