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________________ १५८] तिलोयपण्णत्ती [४.१३६ जंबकुमारसरिच्छो बहुविहविजाहिं संजूदा पवरा । विजाहरा मणुस्सा छक्करमजुदा हुवंति सदा ॥ १३६ भच्छरसरिच्छरूवा अहिणवलावण्णदिव्वरमणिजा । विजाहरवणिताओ बहुविहविजासमिद्धाभो ॥ १३७ कुलजाईविजाओ साहियविजा अणेयभेयाओ । विजाहरपुरिसपुरंधियाणे वरसोक्खजणणीओ ॥ १३८ रम्मुजाणेहिं जुदा होति हु विजाहराण सेढीओ । जिणभवणभूसिदाओ को सक्कइ वण्णिदुं सयलं ॥ १३९ दसजोयणाणि तत्तो उवरिंगतूण दोसु पासेसुं । भभियोगामरसेढी दसजोयणवित्थरी होदि ॥ १४० वरकप्परुक्खरम्मा फलिदेहिं उववणेहि परिपुण्णा । वावितलायप्पउरा वरमच्छरकीडणेहिं जुदा ॥ १४१ कंचणवेदीसहिदा वरगोउरसुंदरा य बहुचित्ता । मणिमयमंदिरबहुला परिखापायारपरियरिया ॥ १४२ सोहम्मसुरिंदस्स य वाहणदेवा हुवंति वितरयो । दक्खिणउत्तरपासेसु तिए वरदिव्वरूवधरा ॥ १४३ अभियोगपुरोहिंतो गंतूणं पंचजोयणाणि तदो। दसजोयणवित्थिणं वेयगिरिस्स वरसिहरं ॥ १४४ __उन नगरोंमें रहनेवाले उत्तम विद्याधर मनुष्य जम्बुकुमार (कामदेव) के समान बहुतप्रकारकी विद्याओंसे संयुक्त और सदा छह कर्मोंसे सहित हैं ॥ १३६ ॥ विद्याधरोंकी स्त्रियां अप्सराओंके सदृश रूपसे युक्त, नवीन दिव्य लावण्यसे रमणीय, और बहुतप्रकारकी विद्याओंसे समृद्ध हैं ॥ १३७ ॥ अनेकप्रकारकी कुलविद्याएं, जातिविद्याएं और साधितविद्याएं विद्याधर पुरुष एवं पुरंध्रियोंको उत्तम सुखकी देनेवाली हैं ॥ १३८ ।। विद्याधरोंकी श्रेणियां रमणीय उद्यानोंसे युक्त और जिन भवनोंसे भूषित हैं। इनका सम्पूर्ण वर्णन करनेके लिये कौन समर्थ हो सकता है ? ॥ १३९ ॥ विद्याधरश्रेणियोंसे आगे दश योजन ऊपर जाकर विजयार्धके दोनों पार्श्वभागमें दश योजन विस्तारवाली आभियोग्य देवोंकी श्रेणी है ॥ १४० ॥ ____ यह श्रेणी उत्कृष्ट कल्पवृक्षोंसे रमणीय, फलित उपवनोंसे परिपूर्ण, प्रचुर वापी एवं तलावोंसे सहित, उत्तम अप्सराओंकी क्रीडाओंसे युक्त, सुवर्णमय वेदीसे सहित, उत्कृष्ट गोपुरोंसे सुन्दर, बहुत चित्रोंसे युक्त, बहुतसे मणिमय भवनोंसे परिपूर्ण, और परिखा एवं प्राकारसे वेष्टित है ॥ १४१-१४२ ॥ इस श्रेणीके दक्षिण-उत्तर पार्श्वभागमें उत्तम दिव्य रूपके धारी सौधर्म इन्द्र के व्यन्तर वाहन देव हैं ॥ १४३ ॥ अभियोगपुरोंसे पांच योजन ऊपर जाकर दश योजन विस्तारवाला वैताढ्य पर्वतका उत्तम शिखर है ॥ १४४ ॥ १ द ब जंबकुमारसरिच्छो. २ द ब पुरंवियाण. ३ द वित्थदो. ४ द ब चित्तरया. ५ द ब पुराहिंतो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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