________________
- ४. १५२ ]
चउत्थो महाधियारो
[ १५९
तियसिंदचावसरिसं विसालवरवेदियाहि परियरियं । बहुतोरणदारजुदं' विचित्तरयणेहि' रमणिजं ॥ १४५ तत्थ समभूमिभागे फुरंतेवर रयणकिरणणियरम्मि । चेट्टंते णव कूडा कंचणमणिमंडिया दिव्वा ॥ १४६ णमो सिद्धकूडो पुन्वदिसंतो तदो भरहकूडो । खंडप्पवादणामो तुरिमो तह माणिभद्दो त्ति ॥ १४७ विजयङ्कुकुमारो पुष्णतिमिस्सगुहाभिधाणो' य । उत्तरभरहो कूडो पच्छिमयं तम्मि वेसमणो ॥ १४८ कूडाणं उच्छेहो पुह पुह छज्जोयणाणि इगिकोसं । तेत्तियमेत्तं णियमा हुवेदि मूलम्मि विक्त्रभो ॥ १४९ जो ६ को १ । जो ६ को १ ।
तस्सद्धं वित्थारो पत्तेक्कं होदि कूडसिहरम्मि । मूलसिहराण' रुंद मेलिय दलिदम्मि मज्झस्स ॥ १५० जो ३ को १ । जो ४ को ११ ।
४
२
आदिमकूडे चेट्ठदि जिनिंदभवणं विचित्तधयमाल । वरकंचणरयणमयं ' तोरणजुत्तं विमाणं च ॥ १५१ दीत्तमेक्ककोसो विक्खंभो होदि कोसद्ध सम्मेत्तं । गाउतिय चरणभागो उच्छेहो जिणणिकेदस्स ॥ १५२ को १ । १ । ३ ।
२ ४
यह शिखर त्रिदशेन्द्रचाप अर्थात् इन्द्रधनुष के सदृश, त्रिशाल व उत्तम वेदिकाओं से वेष्टित, बहुत तोरणद्वारोंसे संयुक्त, और विचित्र रत्नोंसे रमणीय है || १४५ ॥
वहांपर स्फुरायमान उत्तम रत्नोंके किरणसमूहों से युक्त समभूमिभाग में सुवर्ण और मणियों से मंडित दिव्य नौ कूट स्थित हैं ॥ १४६ ॥
पूर्व दिशा के अन्त में सिद्धकूट, इसके पश्चात् भरतकूट, खण्डप्रपात, चतुर्थ माणिभद्र, विजयार्द्धकुमार, पूर्णभद्र, तिमिस्रगुह नामक, उत्तर भरतकूट और पश्चिम दिशाके अन्तमें वैश्रवण, ये उन नौ कूटोंके नाम हैं || १४७-१४८ ॥
इन कूटोंकी उंचाई पृथक् पृथक् छह योजन और एक कोस, तथा इतना ही नियमसे मूलमें विस्तार भी है ॥ १४९ ॥ उंचाई यो. ६ को. १, मूलविस्तार यो. ६ को १ ।
प्रत्येक कूटका विस्तार शिखरपर इससे आधा अर्थात् तीन योजन और आधा कोस है । मूल और शिखरके विस्तारको मिलाकर आधा करनेपर जो प्रमाण हो उतना विस्तार उक्त कूटोंके मध्य में है ॥ १५० ॥ शिखरपर यो. ३ को रे, मध्यमें यो. ४ को ' ( ६ + ३ ) ।
२
प्रथम कूटपर विचित्र ध्वजासमूहों से शोभायमान जिनेन्द्रभवन तथा उत्तम सुवर्ण और रत्नोंसे निर्मित तोरणों से युक्त विमान भी स्थित है ॥ १५१ ॥
उक्त जिनभवनकी लम्बाई एक कोस, चौड़ाई आधा कोस, और उंचाई गव्यूतिके तीन चौथाई भागप्रमाण है || १५२ ॥ दीर्घता २, विष्कंभरे, उत्सेध कोस ।
१ दहारजुदं. २ मि. ३ द पुरत, ब पुरंत ४ द ब 'विधाणो. ५ द ब सिहराणि ६ द आदिमकूडो ७ द जिणंद ८ द ब 'मया. ९ द संमेत्तं.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org