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________________ -४.१३५] चउत्थो महाधियारो [१५७ विजाहरणयरवरा अणाइणिहणा सहावणिप्पण्णा । णाणाविहरयणमया गोउरपासायतोरणादिजुदा ॥ १२६ उज्जाणवणसंजुत्ता पोक्खरणीकूवदिग्वयासहिदा । धुवंतधयवडाया पासादा ते च रयणमया ॥ १२७ णाणाविहजिणगेहा विजाहरपुरवरेसु रमणिजा । वररयणकंचणमया ठाणटाणेसु सोहंति ॥ १२८ वणसंडवत्थणाहा वेदीकडिसुत्तएहि कंतिल्ला । तोरणकंकणजुत्ता विजाहररायभवणमउडधरी ॥ १२९ मणिगिहकंठाभरणा चलंतहिंदोलकुंडलेहिं जुदा । जिणवरमंदिरतिलया णयरणरिंदा विरायंति ॥ १३० पुंफिदकमलवणेहिं वावीणिचएहिं मंडिया विउला । पुरबाहिरभूभागा उजाणवणेहिं रेहति ॥ १३१ कल्हारकमलकुवलयकुमुदुजलजलपवाहपडहत्था । दिव्यतलाया विउला तेसु पुरेसुं विरायंति ॥ १३२ जमणालवल्लतुवरीतिलजवगोधुम्ममासपहुदीहि । सव्वेहिं सुधैंण्णेहिं पुराइं सोहंति भूमीहिं ॥ १३३ बहुदिव्वगामसहिदा ट्रिब्वमहापट्टणेहि रमणिजा । कब्बडदोणमुहेहिं संवाहमडंबएहि परिपुण्णा ॥ १३४ रयणाण यायरोहि" विभूसिदा पउमरायपहुदीणं । दिव्वणरेहि१० पुण्णा धणधण्णसमिद्धिरम्मेहिं ॥ १३५ उपर्युक्त विद्याधरोंके श्रेष्ट नगर अनादिनिधन, स्वभावसिद्ध, अनेकप्रकार रत्नमय, तथा गोपुर, प्रासाद और तोरणादिसे सहित हैं ॥ १२६ ॥ उन नगरोंमें उद्यान-वनोंसे संयुक्त; पुष्करिणी, कूप एवं दीर्घिकाओंसे सहित, और फहराती हुई ध्वजा-पताकाओंसे सुशोभित रत्नमय प्रासाद हैं ॥ १२७ ॥ इन श्रेष्ठ विद्याधरपुरोंमें रमणीय, उत्तम रत्न और सुवर्णमय नानाप्रकारके जिनमंदिर स्थान स्थानपर शोभायमान होते हैं ॥ १२८ ॥ वनखंडरूपी वस्त्रसे आच्छादित, वेदिकारूप कटिसूत्रसे कान्तिमान् , तोरणरूपी कंकणसे युक्त, विद्याधरोंके राजभवन रूप मुकुटको धारण करनेवाले, मणिगृहरूप कंठाभरणसे विभूषित, चंचल हिंडोलेरूप कुण्डलोंसे युक्त, और जिनेन्द्रमन्दिररूपी तिलकसे सुशोभित, ऐसे विद्याधरनगर. रूपी राजा विराजमान हैं ॥ १२९-१३० ॥ नगरके बाहरी विशाल प्रदेश प्रफुल्लित कमलवनोंवाले और वापीसमूहोंसे युक्त उद्यानवनोंसे मंडित होते हुए शोभायमान हैं ॥ १३१ ।। उन नगरोंमें कल्हार, कमल, कुवलय और कुमुदोंसे उज्ज्वल जलप्रवाहसे परिपूर्ण बहुत दिव्य तालाब शोभायमान हैं ।। १३२ ॥ ___यवनाल (जुवार), वल्ल, तूबर, तिल, जौ, गेहूं, और उडद, इत्यादिक समस्त उत्तम धान्योंसे युक्त भूमियोंद्वारा वे नगर शोभाको प्राप्त हैं ॥ १३३ ॥ वे नगर बहुत दिव्य ग्रामोंसे सहित, दिव्य महापट्टनोंसे रमणीय; कर्वट, द्रोणमुख, संवाह, और मटंबोंसे परिपूर्ण; पद्मरागादिक रत्नोंकी खानोंसे विभूषित, और धन-धान्यकी वृद्धिसे रमणीय दिव्य मनुष्योंसे परिपूर्ण हैं ॥ १३४-१३५ ॥ १द ब धुव्वंतरयवदाया. २ द बताण हाणेसु. ३ द वेदीवडि . ४ द कंचण'. ५ द ब भवणमौड. ६ द ब पुग्विद. ७ द सुधणेहिं. ८ ब सयायारहिं. ९ द ब पंचमराय . १०द ब°णयरे हिं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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