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________________ १५२ ] तिलोयपण्णत्ती [४.८२ ते पासादा सब्वे विचित्तवणसंडमंडणा रम्मा । दिप्तरयणदीवा वरधूवघडेहिं संजुत्ता ॥८२ सत्त?णवदसादियविचित्तभूमीहिं भूसिदा विउला । धुवंतधयवडायो अकट्टिमा सुटु सोहंति ॥ ८३ पासरसवण्णवररणिगंधेहिं बहुविधेहिं कदसरिसा । उजलविचित्तबहुविधसयणासणणिवहसंपुण्णा ॥ ६४ एदस्सेि णयरवरे बहुविहपरिवारपरिगदो णिचं । देवीजुत्तो भुजदि उवचारसुहाई विजयसुरो ॥८५ एवं अवसेसाणं देवाणं पुरवराणि रम्माणि । दारोवरिमपदेसे णहम्मि जिणभवणजुत्ताणि ॥ ८६ .. जगदीए अब्भंतरभागे बेकोसवाससंजुत्ता । भूमितले वणसंडी वरतरुणियरा विराजंति ॥ ८७ तं उजाणं सीयलछायं वरसुरहिकुसुमपरिपुण्णं । दिव्वामोदसुगंधं सुरखेयरमिहुणमणहरणं ॥ ८८ बे कोसा उम्विद्धा उज्जाणवणस्स वेदिया दिव्वा । पंचसयचावरुंदा कंचणवररयणणियरमई ॥ ८९ । जगदी सम्मत्ता । (तस्सि जंबूदीवे सत्तविहा होति जणपदा पवरा । एदाणं विचाले छक्कुलसेला विरायते ॥ ९० ) ____ वे सब भवन विचित्र वनसमूहोंसे सुशोभित, रमणीय, प्रदीप्त रत्नदीपकोंसे युक्त, श्रेष्ठ धूपघटोंसे संयुक्त; सात, आठ, नौ और दश इत्यादि विचित्र भूमियोंसे विभूषित; विशाल, फहराती हुई ध्वजापताकाओंसे सहित, और अकृत्रिम होते हुए अच्छीतरह शोभायमान हैं ॥ ८२-८३ ॥ उपर्युक्त भवन नानाप्रकारके स्पर्श, रस, वर्ण, उत्तम ध्वनि एवं गन्धसे सदृशताको प्राप्त और उज्ज्वल एवं विचित्र बहुत प्रकारके शयन तथा आसनोंके समूहसे परिपूर्ण हैं ॥ ८४ ॥ इस श्रेष्ठ नगरमें बहुतप्रकारके परिवारसे परिपूर्ण विजयदेव अपनी देवियोंसे युक्त होकर सर्वदा उपचारसुखोंको भोगता है ॥ ८५॥ इसीप्रकार अन्य द्वारों के उपरिम भागपर आकाशमें जिनभवनोंसे युक्त अवशिष्ट देवोंके रमणीय उत्तम नगर हैं ॥ ८६ ॥ __ जगतीके अभ्यन्तरभागमें पृथ्वीतलपर दो कोस विस्तारसे युक्त और उत्तम वृक्षोंके समूहोंसे परिपूर्ण वनसमूह शोभायमान हैं ॥ ८७ ॥ वह उद्यान शीतल छायासे युक्त, उत्तम सुगन्धित पुष्पोंसे परिपूर्ण, दिव्य सुगन्धसे सुगंधित और देव एवं विद्याधरयुगलोंके चित्तको हरनेवाला है ।। ८८ ॥ ____ सुवर्ण एवं उत्तमोत्तम रत्नोंके समूहसे निर्मित उस उद्यानवनकी दिव्य वेदिका दो कोस ऊंची और पांचसौ धनुषप्रमाण चौड़ी है ॥ ८९ ॥ जगतीका वर्णन समाप्त हुआ । ___ उस जबूद्वीपके बीचमें सात प्रकारके श्रेष्ठ जनपद हैं और इन जनपदोंके अन्तरालमें छह कुलाचल शोभायमान हैं ॥ ९० ।। ..................-------.........................................." १ द जुत्तंतरपरदाया, ब दुच्छंतरपरदाया. २ द ब एदेसिं. ३ द व परिभदा. ४ द व जुत्ता. ५ द ब विजयपुरी. ६ द ब पवेसे. ७ द ब भागो. ८ द ब संडो. ९द बतणु. १० द ब एदाणिं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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