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________________ -४. ८१ ] उत्थो महाधियारो विजयादिदुवाराणं पंचसया जोयणाणि वित्थारो । पत्तेक्कं उच्छेद्दो सस सयाणि च पण्णासा ॥ ७३ जो ५०० । ७५० ॥ दारोवरिमपुराणं रुंदा दो जोयणाणि पत्तेक्कं । उच्छेहो चसारिं केई एवं परूवंति ॥ ७४ २ ।४ । पाठान्तरम् । एदेसिं दाराणं अहिवहदेवां हुवंति विंतरयो । जंणामा ते दारा तंणामा ते वि एक्वादो ॥ ७५ chairs as समाणतुंगवरदेहों । दिव्वामलमउडधरा सहिदा देवीसहस्सेहिं ॥ ७६ दास उवरिदेसे विजयस्स पुरं हवेदि गयणम्मिँ । बारससहस्सजोयणदीहं तस्सद्धविक्खंभं ॥ ७७ १२००० । ६००० । चउगोउरसंजुत्ता तडवेदी तम्मि होदि कणयमई । चरियँहालयचारू दारोवरि जिणपुरे हिं रमयारा ॥ ७८ विजयपुरम्म विचित्ता पासादा विविहरयणकणयमया । समचउरस्सा दीहा अणेयसंठाणसोहिल्ला ॥ ७१ कुंदेंदु संखधवला मरगयवण्णा सुवण्णसंकासा । वरपउमरायसरिसा विचित्तवण्णंतरा पउरा ॥ ८० ओलँग्गामंतभूषणअभिसेउप्पत्तिमेहुणादीणं । सालाओ विसालाभो रयणमईओ विराजति ॥ ८१ [ १५१ विजयादिक द्वारोंमेंसे प्रत्येकका विस्तार पांचसौ योजन और उंचाई सात सौ पचास योजनप्रमाण है || ७३ ॥ विस्तार यो. ५००, उत्सेध ७५० । द्वापर स्थित पुरों से प्रत्येकका विस्तार दो योजन और उंचाई चार योजनमात्र है, ऐसा कितने ही आचार्य प्ररूपण करते हैं ॥ ७४ ॥ विस्तार २, उत्सेध ४ यो. । पाठांतर । इन द्वारोंके अधिपति व्यन्तर देव हैं । द्वारोंके जो नाम हैं, वे ही नाम रक्षाके निमित्तसे इन देवोंके भी हैं ॥ ७५ ॥ ये देव एक पल्योपमप्रमाण आयुके भोक्ता, दश धनुषप्रमाण उन्नत उत्तम शरीरवाले, दिव्य निर्मल मुकुटके धारक, और हजारों देवियोंसे सहित हैं ॥ ७६ ॥ द्वारके ऊपर आकाशमें बारह हजार योजन लंबा और इससे आधे विस्तारवाला विजयदेवका नगर है ॥ ७७ ॥ लंबाई १२०००; विस्तार ६००० यो. । उस विजयपुरमें चार गोपुरोंसे संयुक्त सुवर्णमयी तटवेदी है, जो मार्ग व अट्टालिकाओं से सुन्दर और द्वारोंके ऊपर स्थित जिनपुरोंसे रमणीय है ॥ ७८ ॥ विजयपुर में नानाप्रकारके रत्नों और सुवर्णसे निर्मित, समचतुरस्र दीर्घ और अनेक आकृतियोंसे शोभायमान विचित्र प्रासाद हैं ॥ ७९ ॥ वे प्रासाद कुन्दपुष्प, चन्द्रमा एवं शंखके समान धवल, मरकत मणियों जैसे वर्णवाले, सुवर्णके सदृश, उत्तम पद्मरागमणियों के समान व बहुतसे अन्य विचित्र वर्णोवाले हैं ॥ ८० ॥ उपर्युक्त प्रासादों में ओलगशाला, मंत्रशाला, भूषणशाला, अभिषेकशाला, उत्पत्तिशाला और मैथुनशाला, इत्यादिक रत्नमयी विशाल शालायें शोभायमान हैं ॥ ८१ ॥ १ द ब 'देवो. २ द व चित्तरया. ३द रिक्खादे, व रक्खादे. ४ द ब घरदेहा. ५ द व रयणम्भि ६ द चरिमद्दालय ७ द ओगलं मंत, व पुउलंगमंत ८ ब उप्पच्छि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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