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________________ -४. ९९ ] उत्थो महाधियारो दक्खिणदिसाए भरहो हेमवदो हरिविदेहरम्माणि । हेरण्णवदेरावदवरिसा कुलपव्वदंतरिदा ॥ ९१ कप्पतरुधवलछत्ता वरडववणचामरेहिं वारुधरा । वरकुंडकुंडलेहिं विचित्तरूवेहिं रमणिजा ॥ ९२ वरवेदीक डित्ता बहुरयणुज्जलणगिंदमउडधरा । सरिजलपवाहहारा खेत्तणरिंदा विराजति ॥ ९३ हिमवंतमहाहिमवंत णिसिधणीले द्दिरुम्मिसिहरिगिरी । मूलोवरिसमवासा पुण्वावरजलधीहिं संलग्गा ॥ ९४ एदे हेमज्जुणतवणिजय वे रुलियरजदहेममया । एक्कदुचदुचदुदुगइगिजोयणस्य उदयसंजुदा कमसेो ॥ ९५ १०० । २०० । ४०० । ४०० । २०० । १०० । वरदहसिदादवत्तौ सरिचामरविजमाणया परिदो । कप्पतरुचारुचिंधों वसुमईसिंहासनारूढा ॥ ९६ वरवेदीक डिसुत्ता विविद्दुज्जलरयणकूडमउडधरा । अंबरणिज्झरहारा चंचलतरुकुंडलाभरणा ॥ ९७ गोरतिरीरम्मा पायारसुगंधकुसुमदामग्गा । सुरपुरकंठाभरणा वैणराजिविचित्तवत्थकयसोहा ॥ ९८ तोरणकंकणजुत्ता वज्जपणालीफुरंत केयूरा । जिणवर मंदिरतिलया भूधरराया विराजति ॥ ९९ दक्षिण दिशा से लेकर भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ये सात क्षेत्र हैं, जो कुलपर्वतों से विभक्त हैं ॥ ९१ ॥ [ १५३ कल्पवृक्षरूपी सफेद छत्रसे विभूषित, उत्तम उपवनरूपी चामरोंसे शोभित पृथिवीसे युक्त, विचित्र रूपवाले उत्तम कुण्डरूपी कुण्डलोंसे रमणीय, उत्तम वेदीरूपी कटिसूत्रसे अलंकृत, बहुत प्रकारके रत्नोंसे उज्ज्वल कुलपर्वतरूपी मुकुटको धारण करनेवाले, और नदियोंके जलप्रवाहरूपी हारसे संयुक्त, ऐसे ये भरतादिक क्षेत्ररूपी राजा विराजमान हैं । ९२-९३ ॥ हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी, ये छह कुलपर्वत मूलमें व ऊपर समान विस्तारसे युक्त तथा पूर्वापर समुद्रोंसे संलग्न हैं ॥ ९४ ॥ सुवर्ण, चांदी, तपनीय, वैडूर्यमणि, रजत और सुवर्णके समान वर्णवाले ये छहों कुलपर्वत क्रमसे एकसौ, दोसौ, चारसौ, चारसौ, दोसौ, और एकसौ, योजनप्रमाण उंचाईसे संयुक्त हैं ।। ९५ ॥ हिम. १००, महा. २००, निषध ४००, नील ४००, रुक्मी २००, शिखरी १०० यो. उत्तम द्रहरूपी सफेद छत्रसे विभूषित, चारों ओर नदीरूपी चामरोंसे वीज्यमान, कल्पवृक्षरूपी सुन्दर चिह्नोंसे सहित, वसुमतीरूपी सिंहासनपर विराजमान, उत्तम वेदीरूपी कटिसूत्र से युक्त, विविध प्रकार के उज्ज्वल रत्नोंके कूटरूपी मुकुटको धारण करनेवाले, आकाशके निर्झररूपी हारसे शोभायमान, चंचल वृक्षरूपी कुण्डलोंसे भूषित, गोपुररूप किरिटसे सुन्दर, कोटरूपी सुगन्धित फूलोंकी मालासे अग्रभाग में सुशोभित, सुरपुररूपी कण्ठाभरणसे अभिराम, वनपंक्तिरूप विचित्र वस्त्रोंसे शोभायमान, तोरणरूपी कंकणसे युक्त, वज्रप्रणालीरूपी स्फुरायमान केयूरोंसे सहित, और जिनालयरूप तिलकसे मनोहर, ऐसे कुलाचलरूपी राजा विराजमान हैं ॥ ९६-९९ ॥ १ द ब नीलद्धि. २ द ब जलदेहिं. ३ द ब वरदा हसिदा रत्ता ४ द ब सवि० ५ द ब ' चारुविंदा. ६ द ब वसुमहीं. ७ ब वरराज ८ द ब तारिण ं ९ द वज्जफणाली. . TP. 20 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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