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________________ १४४ ] तिलोयपण्णत्ती [४. १६मूले बारस मज्झे अट्ट चिय जोयणाणि णिहिट्ठा । सिहरे चत्तारि पुढं जगदीरुदस्सै परिमाणं ॥ १६ १२।८।४। दो कोसा अवगाढा तेत्तियमेत्ता हुवेदि वजमयी। मज्झे बहुरयणमयी सिहरे वेरुलियपरिपुण्णा ॥ १७ कोस २। तीए मूलपएसे पुवावरदो य सत्त सत्त गुहा । वरतोरणाहिरामा अणाइणिधणा विचित्तयरा ॥ १८ जगदीउवरिमभाए बहुमझे कणयवेदिया दिव्वा । बे कोसा उत्तुंगा वित्थिण्णा पंचसयदंडा ॥ १९ को २ । दंड ५००। जगदीउवरिमरुंदा वेदीरुंद खु सोधियद्धकदो । जं लद्धमेक्कपासे तं विक्खंभस्स परिमाणं ॥ २० पण्णरससहस्साणि सत्तसया धणूणि पण्णासा । अभंतरविक्खंभा बाहिरवासो वि तम्मे ॥ २१ १५७५० । वेदीदोपासेसु उववणसंडी हवंति रमणिज्जा । वरवावीसुजुत्ता विचित्तमणिआरपरिपुण्णा ॥ २२ जेट्टा दोसयदंडी विक्खंभजुदा हवेदि मज्झिमया। पण्णासब्भहियसयं जघण्णवावी वि सयमेकं ॥ २३ दं २०० । १५० । १०० । जगतीके विस्तारका प्रमाण मूलमें बारह, मध्यमें आठ और सिखरपर चार योजन कहा गया है ॥ १६ ॥ जगतीविस्तार- मूलमें १२, मध्यमें ८, शिखरपर ४ यो.। __उक्त जगतीकी गहराई अर्थात् नीव दो कोस है, जो सब ही वज्रमय है। यह मध्यमें बहुत रत्नोंसे निर्मित और शिखरपर वैडूर्यमणियोंसे परिपूर्ण है ॥ १७ ॥ कोस २. ___ उस जगतीके मूल प्रदेशमें पूर्व-पश्चिमकी ओर सात सात गुफायें हैं, जो उत्कृष्ट तोरणोंसे रमणीय, अनादिनिधन एवं अत्यन्त विचित्र हैं ॥ १८ ॥ इस जगतकेि उपरिम भागपर ठीक बीचमें दिव्य सुवर्णमय वेदिका है। यह दो कोस ऊंची और पांचसौ धनुषप्रमाण चौड़ी है ॥ १९॥ उंचाई को. २, विस्तार दंड ५०० । जगतीके उपरिम विस्तारमेंसे वेदक विस्तारको घटाकर शेषको आधा करनेपर जो प्राप्त हो उतना वेदीके एक पार्श्वभागमें जगतीका विस्तार है ॥२०॥ ३ २ ० ०० - ५००=१५७५० धनुष। जगतीका अभ्यन्तर विस्तार पन्द्रह हजार सातसौ पचास धनुष और इतना ही उसका बाह्य विस्तार भी है ॥ २१ ॥ १५७५० । वेदीके दोनों पार्श्वभागोंमें उत्तम वापियोंसे संयुक्त और विचित्र मणिगृहोंसे परिपूर्ण रमणीय उपवनोंके समूह हैं ।। २२ ॥ इनमेंसे उत्कृष्ट बावड़ियोंका विस्तार दौसौ धनुष, मध्यमोंका एकसौ पचास धनुष और जघन्योंका एकसौ धनुषप्रमाण है ।। २३ ॥ उत्कृष्ट २००, मध्य. १५०, ज. १०० धनुष । १ द ब जगदीमंदस्स. २ द ब बज्जमयं. ३ द ब रयणमवो. ४ द तोरणाइ', बतोरणाय'. ५ द ब रुंदो. ६ द ब अद्धमेक्कपासे. ७ द ब दंडधणूणि. ८ द ब °वासोधितंमेत्ता. ९ द संदो, बसुंडो. १० द ब मुणिआर. ११ दब दंडो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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