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तिदियो महाधियारो
जे अण्णातहिं जुत्ता णाणाविहुप्पादिददेहदुक्खा ।
घेण सण्णाणतवं पिपावा डज्झंति जे दुब्विसयप्पसत्ता ॥ २४१ विसुद्धलेस्साहि सुराउबंधं काऊणे कोहादिसुधा दिदाऊ ।
सम्मत्त संपत्तिविमुक्कबुद्धी जायंति एदे भवणेसु सब्वे ॥ २४२
सणारयणदीओ लोयालोयप्पयासणसमत्थो । पणमामि सुमइसा सुमइकरं भव्वलोगस्स ॥ २४३
एवमारियपरंपरागयतिलोय पण्णत्तीए भवणवासियलोय सरूवणिरुवणपण्णत्ती णाम
- ३. २४३ ]
१ द ब कोऊण.
तिदियो महाधियारो सम्मत्तो ॥ ३ ॥ ॥ ३ ॥ ]
जो कोई अज्ञानतपसे युक्त होकर शरीर में नानाप्रकारके कष्टोंको उत्पन्न करते हैं, तथा जो पापी सम्यग्ज्ञान से युक्त तपको ग्रहण करके भी दुष्ट विषयोंमें आसक्त होकर जला करते हैं, वे सब विशुद्ध लेश्याओंसे पूर्वमें देवायुको बांधकर पश्चात् क्रोधादि कषायोंद्वारा उस आयुका घात करते हुए सम्यक्त्वरूप संपत्ति से मनको हटाकर भवनवासियोंमें उत्पन्न होते हैं ॥ २४१-२४२ ॥
जिनका सम्यग्ज्ञानरूपी रत्नदीपक लोकालोकके प्रकाशन में समर्थ है और जो भव्य जीवोंको सुमति देनेवाले हैं, उन सुमतिनाथ स्वामीको मैं नमस्कार करता हूं ॥ २४३ ॥ इसप्रकार आचार्यपरंपरागत त्रिलोक-प्रज्ञप्ति में भवनवासीलोकस्वरूप-निरूपण प्रज्ञप्तिनामक
तृतीय महाधिकार समाप्त हुआ || ३ ॥
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२ द समत्ता.
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