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तिलोयपण्णत्ती
[ ३.२३३
पडुपडहप्पहुदींहिं सत्तसराभरणमहुरगीदेहिं । वरललितणचणेोहैं देवा भुंजंति अवभेोगं ॥ २३३ ओहिं पि विजाणतो अण्णोष्णुप्पण्णपेम्ममूलमणा । कामंधा ते सव्वे गदं पि काळं ण याणंति ॥ २३४ वररयणकंचणाए विचित्तसयलुज्जलम्मि पासादे । कालागरुगंधडे रागणिधाणे रमंति सुरा ।। २३५ सयणाणि भासणाणि मउवाणि विचित्तरूवरइदाणिं । तणुमणवयणाणंदणजणणाणिं होंति देवाणं ॥ २३६. (पासरसरुवसद्धुणिगंधेहिं' वडियाणि लोक्खाणिं । उवर्भुजंती देवा ति िण लहंति णिमिस पि ।। २३७ दीवेसु देसुं भोगविदीए वि णंदणवणेसुं । त्ररपोक्खरिणीपुलित्थलेसु कीडंति राएण ॥ २३८ | एवं सुइसरूवं समत्तं ।
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भवणे समुपण्णा पत्तिं पाविण सन्भेयं । जिणमहिमदंसणेणं केई देविद्विदंसणदो ॥ २३९ जादीए सुमरणेणं वरधम्मप्पबोहणावलडीए । गेव्हंते सम्मन्तं दुरंतसंसारणासकरं ॥ २४०
| सम्मतगद्दणं गदं ।
तथा उत्तम पटह इत्यादि वादित्र, सात स्वरोंसे शोभायमान मधुर गीत, एवं उत्कृष्ट सुन्दर नृत्यका उपभोग करते हैं || २३१-२३३ ॥
अवधिज्ञानसे जानते हुए भी परस्पर में उत्पन्न हुए प्रेमके मूलभूत मानसिक विचारोंसे युक्त वे सब देव कामांध होकर बीते हुए समयको भी नहीं जानते हैं ॥ २३४ ॥
उक्त देव उत्तम रत्न और सुवर्णसे विचित्र और सर्वत्र उज्ज्वल, कालागरुकी सुगन्धसे व्याप्त और रागके स्थानभूत प्रासादमें रमण करते हैं ॥ २३५ ॥
देवशयन और आसन मृदुल, विचित्ररूपसे रचित, तथा शरीर, मन एवं वचनको आनन्दोत्पादक होते हैं ॥ २३६ ॥
ये देव स्पर्श, रस, रूप, सुन्दर शब्द और गंधसे वृद्धिको प्राप्त हुए सुखोंका अनुभव करते हुए क्षणमात्रके लिये भी तृप्तिको प्राप्त नहीं होते हैं ॥ २३७ ॥ ये कुमार देव रागसे द्वीप, कुलाचल, भोगभूमि, नदियोंके तटस्थानों में भी क्रीड़ा करते हैं ॥ २३८ ॥
नन्दनवन और उत्तम बावड़ी अथवा
इसप्रकार देवोंके सुखस्वरूपका कथन समाप्त हुआ ।
भवनों में उत्पन्न होकर छह प्रकारकी पर्याप्तियोंको प्राप्त करनेके पश्चात् कोई जिनमहिमा (कल्याणकादि ) के दर्शनसे, कोई देवोंकी ऋद्धिके देखनेसे, कोई जातिस्मरणसे, और कितने ही देव उत्तम धर्मोपदेशकी प्राप्तिसे दुरन्त संसारको नष्ट करनेवाले सम्यग्दर्शनको प्रहण करते हैं सम्यक्त्वका ग्रहण समाप्त हुआ ।
॥ २३९ - २४० ॥
१ द
४ द व सरूवप्पं
ववज्जुणि गंधेहि, ५ द ब देविंद .
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बरूवचक्कूणि गंधेहिं.
२ द ब सोमाथि.
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३ द म उवयंजुत्ता.
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