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________________ १४० ] तिलोयपण्णत्ती [ ३.२३३ पडुपडहप्पहुदींहिं सत्तसराभरणमहुरगीदेहिं । वरललितणचणेोहैं देवा भुंजंति अवभेोगं ॥ २३३ ओहिं पि विजाणतो अण्णोष्णुप्पण्णपेम्ममूलमणा । कामंधा ते सव्वे गदं पि काळं ण याणंति ॥ २३४ वररयणकंचणाए विचित्तसयलुज्जलम्मि पासादे । कालागरुगंधडे रागणिधाणे रमंति सुरा ।। २३५ सयणाणि भासणाणि मउवाणि विचित्तरूवरइदाणिं । तणुमणवयणाणंदणजणणाणिं होंति देवाणं ॥ २३६. (पासरसरुवसद्धुणिगंधेहिं' वडियाणि लोक्खाणिं । उवर्भुजंती देवा ति िण लहंति णिमिस पि ।। २३७ दीवेसु देसुं भोगविदीए वि णंदणवणेसुं । त्ररपोक्खरिणीपुलित्थलेसु कीडंति राएण ॥ २३८ | एवं सुइसरूवं समत्तं । 1 भवणे समुपण्णा पत्तिं पाविण सन्भेयं । जिणमहिमदंसणेणं केई देविद्विदंसणदो ॥ २३९ जादीए सुमरणेणं वरधम्मप्पबोहणावलडीए । गेव्हंते सम्मन्तं दुरंतसंसारणासकरं ॥ २४० | सम्मतगद्दणं गदं । तथा उत्तम पटह इत्यादि वादित्र, सात स्वरोंसे शोभायमान मधुर गीत, एवं उत्कृष्ट सुन्दर नृत्यका उपभोग करते हैं || २३१-२३३ ॥ अवधिज्ञानसे जानते हुए भी परस्पर में उत्पन्न हुए प्रेमके मूलभूत मानसिक विचारोंसे युक्त वे सब देव कामांध होकर बीते हुए समयको भी नहीं जानते हैं ॥ २३४ ॥ उक्त देव उत्तम रत्न और सुवर्णसे विचित्र और सर्वत्र उज्ज्वल, कालागरुकी सुगन्धसे व्याप्त और रागके स्थानभूत प्रासादमें रमण करते हैं ॥ २३५ ॥ देवशयन और आसन मृदुल, विचित्ररूपसे रचित, तथा शरीर, मन एवं वचनको आनन्दोत्पादक होते हैं ॥ २३६ ॥ ये देव स्पर्श, रस, रूप, सुन्दर शब्द और गंधसे वृद्धिको प्राप्त हुए सुखोंका अनुभव करते हुए क्षणमात्रके लिये भी तृप्तिको प्राप्त नहीं होते हैं ॥ २३७ ॥ ये कुमार देव रागसे द्वीप, कुलाचल, भोगभूमि, नदियोंके तटस्थानों में भी क्रीड़ा करते हैं ॥ २३८ ॥ नन्दनवन और उत्तम बावड़ी अथवा इसप्रकार देवोंके सुखस्वरूपका कथन समाप्त हुआ । भवनों में उत्पन्न होकर छह प्रकारकी पर्याप्तियोंको प्राप्त करनेके पश्चात् कोई जिनमहिमा (कल्याणकादि ) के दर्शनसे, कोई देवोंकी ऋद्धिके देखनेसे, कोई जातिस्मरणसे, और कितने ही देव उत्तम धर्मोपदेशकी प्राप्तिसे दुरन्त संसारको नष्ट करनेवाले सम्यग्दर्शनको प्रहण करते हैं सम्यक्त्वका ग्रहण समाप्त हुआ । ॥ २३९ - २४० ॥ १ द ४ द व सरूवप्पं ववज्जुणि गंधेहि, ५ द ब देविंद . Jain Education International बरूवचक्कूणि गंधेहिं. २ द ब सोमाथि. For Private & Personal Use Only ३ द म उवयंजुत्ता. www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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