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________________ - ३. २३२ ] तिदियो महाधियारो भिंगारक लसदप्पणछत्तसयचमरपहुदिदन्वे हि । पूजति फलिर्हदंडोवमाणवरवारिधारेहिं ॥ २२३ गोसीरमलय चंदण कुंकुमपंकेहिं परिमलिल्लेहिं । मुत्ताइलपुंजेहिं सालीए तंदुलेहिं सयले हिं ॥ २२४ वविविधकुसुममाला सएहिं धूवंगरंगगंधेहिं । भ्रमयादो मुहुरेहिं णाणाविहदिग्वभक्खहि ॥ २२५ सुगंधेरियणपईवेहिं दित्तकिरणेहिं । पक्केहि फणसकदलीदाडिमदक्खादियफलेहिं ॥ २२६ पूजा अवसाणे कुते णाढयाइं विविहाई । पवरच्छरापजुत्ता बहुरसभावाभिणेयाई ॥ २२७ णिस्सेसकम्मक्खवणेकदेदुर मण्णतया तत्थ जिनिंदपूजं । सम्मत्तविरय। कुब्वंति णिच्चं देवा महाणंतविसोहिपुज्वं ॥ २२८ कुला हिदेव इव मण्णमाणा पुराणदेवाण पबोधणेण । मिच्छाजुदा ते य जिनिंदपूजं भत्तीए णिच्च णियमा कुर्णति ॥ २२९ काढूण दिव्यपूजं आगच्छिय नियणियम्मि पासादे । सिंहासणाधिरूढा बोलगसालंति देवा णं ॥ २३० विविहरतिकरणभाविदविसुद्धबुद्धीहि दिन्वरूवाद्दे । णाणाविकुब्वणं बहुविलास संपत्तिजुत्ताहि ॥ २३१ मायाच्चारविवज्जिदप कि दिपसण्णाहिं अच्छराहिं समं । नियणियविभूदिजोग्गं संकष्पवलंगदं सोक्खं ॥ २३२ [ १३९ वे देव झारी, कलश, दर्पण, तीन छत्र और चामरादि द्रव्योंसे, स्फटिकमणिमय दण्डके तुल्य उत्तम जलधाराओंसे; सुगन्धित गोशीर, मलयचन्दन, और केशरके पंकोंसे; मोतियोंके पुंजरूप शालिधान्यके अखण्डित तंदुलोंसे; जिनका रंग और गंध फैल रहा है ऐसी उत्तमोत्तम विविधप्रकारकी सैकड़ों मालाओंसे; अमृत से भी मधुर नानाप्रकारके दिव्य नैवेद्यों से; सुगंधित धूपोंसे; प्रदीप्त किरणोंसे युक्त रत्नमयी दीपकोंसे; और पके हुए कटहल, केला, दाडिम, एवं दाख इत्यादि फलों से पूजा करते हैं ।। २२३ - २२६ ॥ पूजा के अन्त में वे देव उत्तम अप्सराओंसे प्रयुक्त किये गये और बहुत प्रकारके रस, भाव और अभिनय से युक्त विविध प्रकारके नाटकों को करते हैं ॥ २२७ ॥ वहां पर अविरत सम्यग्दृष्टि देव जिनपूजाको समस्त कर्मोंके क्षयकरनेमें एक अद्वितीय कारण समझकर नित्य ही महान् अनन्तगुणी विशुद्धिपूर्वक उसे करते हैं ॥ २२८ ॥ पुराने देवोंके उपदेश से वे मिध्यादृष्टि देव भी जिनप्रतिमाओंको कुलाधिदेवता मानकर नित्य ही नियमसे भक्तिपूर्वक जिनेन्द्रार्चन करते हैं ॥ २२९ ॥ इसप्रकार दिव्य जिनपूजा करनेके पश्चात् अपने अपने भवन में आकर वे देव ओलगशाला सिंहासन पर विराजमान हो जाते हैं ॥ २३० ॥ फिर वे देव विविध रतिके प्रकटीकरणमें चतुर, दिव्य रूपोंसे युक्त, नानाप्रकारकी विक्रिया व बहुत विलास - सम्पत्ति से सहित, और मायाचारसे रहित होकर स्वभावसे ही प्रसन्न रहनेवाली ऐसी अप्सराओंके साथ अपनी अपनी विभूतिके योग्य एवं संकल्पमात्र से प्राप्त होनेवाले सुख Jain Education International १ द ब पलिह. २ द सालेहिं. ३ द व क्खवणंकहेदु. ४ द व सम्मत्तविरयं. ५ द व कुलाइदेवा . ६ द भक्तीय. ७ [ ओलगसालम्मि ]. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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