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________________ १३८] तिलोयपण्णत्ती . [३. २१४ मणुस्सतेरिश्वभवम्हि पुग्वे लद्धो ण सम्मत्तमणी पुरुवं । तिलप्पमाणस्स सुहस्स कजे चत्तं मए कामविमोहिदेण ॥ २१४ जिणोवदिट्ठागमभावणिज देसम्वदं गेण्हियै सोक्खहेर्नु । मुकं मए दुबिसयत्यमप्पस्सोक्खाणुरत्तेण विचेदणेण ॥२१५ भणतणाणादिचउक्कहे णिवाणबीजं जिणणाहलिगं । पभूदकालं धरिदूण चसं मए मयंधेण वधूणिमित्तं ॥ २१६ कोहेण लोहेण भयंकरेणं मायाँपवंचेण समच्छरेणं । माणेण व महाविमोहो मेलाविरो हं जिणणाहमगं ॥ २१७ तत्तो ववसायपुरं पविसिय पूजाभिसेयजोग्गाई । गहिदणं दवाई देवा देवीहिं संजुत्ता ।। २१८ णच्चिदविचित्तकोडणमालावरचमरछत्तसोहिल्ला । णिभरभत्तिपसण्णा वञ्चंते कूडजिणभवणं ॥ २१९ पाविय जिणपासादं वरमंगलतोरणं रइदहलबोला । देवा देवीसहिदा कुन्वंति पदाहिणं णमिदा ।। २२० सिंहासणछत्तत्तयभामंटलचामरादिचारुणिमा। दट्टण जिणप्पडिमा जयजयसहा पकुवति ।। २२१ पिडपडहसंखमद्दलजयघंटाकहलगीयसंजुत्ता । वाइजतेहि सुरा जिणिंदपूजा पकुवंति ॥ २२२ मैंने पूर्व कालमें मनुष्य और तिर्यच भवमें उत्कृष्ट सम्यक्त्वरूपी मणिको प्राप्त नहीं किया और यदि प्राप्त भी किया है तो उसे कामसे विमोहित होकर तिलके बराबर अर्थात् किंचित् सुखकेलिये छोड़ दिया ॥ २१४ ॥ जिनोपदिष्ट आगममें भावनीय एवं वास्तविक सुखके निमित्तभूत देशचारित्रको ग्रहण करके मेरे जैसे मूर्खने अल्प सुखमें अनुरक्त होकर दुष्ट विषयोंकेलिये उसे छोड़ दिया ॥ २१५ ॥ अनन्तज्ञानादि-चतुष्टयके कारण और मुक्तिके बीजभूत जिनेन्द्रलिंग अर्थात् सकलचारित्रको बहुत कालतक धारण करके मैंने मदान्ध होकर कामिनीके निमित्त उसे छोड़ दिया ॥ २१६ ॥ भयंकर क्रोध, लोभ और मात्सर्यभावसहित मायाप्रपंच एवं मानसे वृद्धिंगत अज्ञानभावको प्राप्त हुआ मैं जिनेन्द्रोपदिष्ट मार्गको छोड़े रहा ॥ २१७ ॥ इसके पश्चात् व्यवसायपुरमें प्रवेशकर पूजा और अभिषेकके योग्य द्रव्योंको लेकर वे देव देवियोंसे सहित; नर्तन, विचित्र क्रीडन, माला, उत्कृष्ट चमर और छत्रसे शोभायमान; एवं गाढ भक्तिसे प्रसन्न होते हुए कूटपर स्थित जिनभवनको जाते हैं ॥ २१८-२१९ ॥ उत्कृष्ट मंगल और तोरणोंसे सहित जिनभवनको प्राप्त कर कोलाहल करते हुए वे देव देवियोंके साथ नमस्कारपूर्वक प्रदक्षिणा करते हैं ॥ २२० ।। वे देव वहांपर सिंहासन, तीन छत्र, भामण्डल और चामरादि आठ प्रातिहार्योंसे सुशोभित जिनेन्द्रमूर्तियोंका दर्शनकर जय जय शब्द करते हैं ॥ २२१ ॥ उक्त देव जिनमन्दिरमें उत्तम पटह, शंख, मृदंग, जयघंटा और काहल, इन बाजोंसे संयुक्त होकर गानपूर्वक जिनेन्द्रपूजन करते हैं ॥ २२२ ।। १ द व सम्मत्तमभं. २ द ब गेण्हय. ३ द ब °णाणाणि. ४ द मायापवत्तेण. ५ द व वंदंत . ६ द तत्तो वसाय . ७ दब देवेहिं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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