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________________ -३. २१३ ] तिदियो महाधियारो [ १३७ (तित्ययरसंघमहिमाआगमगंथादिएसु पडिकूला । दुग्विणया णिगदिल्ला जायते किब्बिससुरसुं ॥ २०४) उप्पहउवएसयरा विप्पटिवण्णा जिणिदमग्गम्मि । मोहेणं संमोधा संमोहसुरेसु जायते ॥ २०५ जे कोहमाणमायालोहासत्ताकिविट्रचारित्ता। वइराणुबद्धरुचिरा ते उप्पजति भसुरेसं ॥ २०६ उप्पजते भवणे उववादपुरे महारिहे सण्णे । पार्वति छपजतिं जादा अंतोमुत्तेण ॥ २०७ भट्ठिसिरारुहिरवसामुत्तपुरीसाणि केसलोमाइं। चम्मडमंसप्पहुदी ण होइ देवाण संघडणे ॥२०८) वण्णरसगंधफासे अइसयवेकुव्वदिब्वखंदा हि । णेदेसु रोयवादिउवठिदी कम्माणुभावेण ॥ २०९ उप्पण्णे सुरभवणे पुन्वमणुग्धाडिदं कवाडजुगं । उग्घडदि तम्मि समए पसरदि आणंदभेरिरवं ॥ २१० आयण्णिय भेरिरवं ताणं पासम्मि कयजयंकारा । एंति परिवारदेवा देवीओ पमोदभरिदाओ॥ २११ वायंता जयघंटापडहपडा किब्बिसा य गायति । संगीयणट्टमागधदेवा एदाण देवीभो ॥२१२ देवीदेवसमूहं दट्टणं तस्स विम्हो होदि । तक्काले उप्पजदि विभंग थोवपञ्चक्खं ॥ २१३ ---............ जो लोग तीर्थकर व संघकी महिमा एवं आगम-ग्रन्थादिकके विषयमें प्रतिकूल हैं, दुर्विनयी और मायाचारी हैं, वे किल्विषिक देवोंमें उत्पन्न होते हैं ॥ २०४ ।। उत्पथ अर्थात् कुमार्गका उपदेश करनेवाले, जिनेन्द्रोपदिष्ट मार्गमें विरोधी और मोहसे संमुग्ध जीव संमोह जातिके देवोंमें उत्पन्न होते हैं ॥ २०५ ॥ जो जीव क्रोध, मान, माया और लोभमें आसक्त हैं; अकृपिष्ठचारित्र अर्थात् क्रूराचारी हैं; तथा वैरभावमें रुचि रखते हैं, वे असुरोंमें उत्पन्न होते हैं ॥ २०६ ॥ उक्त जीव भवनवासियोंके भवनके भीतर महार्ह कोमल उपपादशालामें उत्पन्न होते हैं, और उत्पन्न होने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्तमें ही छह पर्याप्तियोंको प्राप्त कर लेते हैं ॥ २०७॥ देवोंके शरीरमें हड्डी, नस, रुधिर, चर्बी, मूत्र, मल, केश, रोम, चमड़ा और मांसादिक नहीं होता ॥ २०८॥ चूंकि वर्ण, रस, गन्ध, और स्पर्शके विषयमें अतिशयको प्राप्त वैक्रियिक दिव्य स्कंध होते हैं, इसीलिये इन देवोंके कर्मके प्रभावसे रोग आदिकी उपस्थिति नहीं होती ॥ २०९॥ - सुरभवनमें उत्पन्न होनेपर पहिले अनुद्घाटित दोनों कपाट खुलते हैं, और फिर उसी समय आनन्द-भेरीका शब्द फैलता है ॥ २१० ॥ भेरीके शब्दको सुनकर पारिवारिक देव और देवियां हर्षसे परिपूर्ण हो जयकार करते हुए उन देवोंके पास आते हैं ॥ २११ ॥ उस समय किल्बिषिक देव जयघंटा, पटह और पट इन बाजोंको बजाते हैं, और संगीत व नाट्यमें चतुर मागध देव एवं उनकी देवियां गाती हैं ॥ २१२ ॥ . इन देव-देवियोंके समूहको देखकर उस नवजात देवको आश्चर्य होता है। पश्चात् उसी समय उसे अल्प प्रत्यक्षरूप विभंगज्ञान उत्पन्न होता है ॥ २१३ ।। १ द ब चम्मह.२ द पासे. ३ द ब गेण्हेसु रोयवादि उवठिदि. ४ द ब उप्पण्णसुरविमाणे.५[विन्भंग]. TP. 18 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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