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________________ १३२] तिलोयपण्णत्ती [३. १६० पत्तेक्कमद्धलक्खं भारोहकवाहणाण जेट्ठाऊ । सेसम्मि दक्खिणिंदे अदिरित्तं उत्तरिंदम्मि ॥ १६० ५००००। जेत्तियमेत्ता याऊ पइण्णअभिजोगकिब्बिससुराणं तप्परिमाणपरूवणउवएसा संपई णट्ठा ॥१६॥ दसवाससहस्साऊ जो देओ' माणुलाण सयमेत्तं । मारिदुमह पोसे, सो सक्कदि अप्पसत्तीए । १६२ खेत्तं दिवड्डसयधणुपमाणायामवासबहलत्तं । बाहाहिं वेढेहूँ' उप्पाडेदु पि सो सक्को ॥ १६३ दं १५०। एक्कपलिदोवमाऊ उप्पालेढुं महीए छक्खंडं । तग्गदणरतिरियाणं मारे, पोसिदं सको ॥ १६४ उवहिउवमाणजीवी जंबूदीवं समुद्दएँ खिविदुं । तग्गदणरतिरियाणं मारे, पोसिढुं सको ॥१६५ दसवाससहस्साऊ सदरूवाणि विगुब्वणं कुणदि । उक्कस्सम्मि जहण्णे सगरूवा मज्झिमे विविहा ॥ १६६ अवसेससुरा सम्वे णियणियओहिप्पैमाणखेत्ताणि । जेत्तियेमेत्ताणि पुढं पूरंति विकुव्वणीए एदाई ॥ १६७ संखेज्जाऊ जस्स य सो संखेजाणि जोयणाणि सुरो । गच्छेदि एक्कसमए आगच्छदि तेत्तियाणि पि ॥ १६८ शेष दक्षिण इन्द्रोंके आरोहक वाहनों से प्रत्येककी उत्कृष्ट आयु अर्ध लाख वर्ष और उत्तर इन्द्रोंके आरोहक वाहनोंकी उत्कृष्ट आयु इससे अधिक है ॥ १६० ॥ वर्ष ५० हजार । प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिक देवोंकी जितनी आयु होती है, उसके प्रमाणके प्ररूपणके उपदेश इस समय नष्ट होचुके हैं ॥ १६१ ॥ जिस देवकी आयु दश हजार वर्षकी है, वह अपनी शक्तिसे एकसौ मनुष्योंको मारने अथवा पोसनेकेलिये समर्थ है ॥ १६२ ॥ उपर्युक्त आयुका धारक वह देव डेढसौ धनुषप्रमाण लंबे, चौड़े और मोटे क्षेत्रको बाहुओंसे वेष्टित करने और उखाड़नेकेलिये भी समथ है ॥ १६३ ॥ द. १५० । एक पल्योपम आयुका धारक देव पृथिवीके छह खण्डोंको उखाड़ने तथा वहां रहनेवाले मनुष्य एवं तिर्यंचोंको मारने अथवा पोसनेकेलिये समर्थ है ॥ १६४॥ एक सागरोपम कालतक जीवित रहनेवाला देव जम्बूद्वीपको समुद्र में फेंकने और उसमें स्थित मनुष्य एवं तिथंचोंको मारने अथवा पोसनेकेलिये समर्थ है ॥ १६५ ॥ ___ दश हजार वर्षकी आयुवाला देव उत्कृष्टरूपसे सौ, जघन्यरूपसे सात, और मध्यमरूपसे विविध रूपोंकी, अर्थात् सातसे अधिक और सौसे कम रूपोंकी विक्रिया करता है ॥ १६६॥ शेष सब देव, अपने अपने अवधिज्ञानके क्षेत्रोंका जितना प्रमाण है, उतने क्षेत्रोंको पृथक् पृथकू विक्रियासे पूरित करते हैं ॥ १६७ ॥ जिस देवकी संख्यात वर्षकी आयु है, वह एक समयमें संख्यात योजन जाता है और इतने ही योजन आता है ॥ १६८ ॥ १ द मेत्तयाऊ. २ द अभियोग. ३ द ब उवएस. ४ ब देवाउ. ५ द वेदेदु. ६ द ब उप्पादेहूँ. ७दब जंबूदीवरस उग्गमे. ८ दब उहइपमाण. ९ब जित्तिय. १०वविउव्वणाए. ११ दब सुरा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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