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________________ तिलोयपण्णत्ती [ ३. १३१ धाविहीणत्तादो रेदविणिग्गमणमत्थि ण हु ताणं । संकप्पसुहं जायदि वेदस्स उदीरणाविगमे ॥ १३१ बहुविधपरिवारजुदा देविंदा विविछतपहुदीणं । सोहंति विभूदीहिं पडिइंदादी य चत्तारो ॥ १३२ पडिइंदादिचउन्हं सिंहासणआदवत्तचमराणि । णियणियइंदस्माणि आयारे होंति किंचूणा ॥ १३३ सव्वेर्सि इंदाणं चिण्हाणि तिरीटमेव मणिखजिदं । पडिइंदादिचउण्डं चिन्हं मउडं मुणेदव्वा ॥ १३४ ओलगसालापुरदो चेत्तदुमा होंति विविहरयणमया । असुरप्प हुदिकुलाणं ते चिण्हाई इमा होंति' ॥ १३५ अस्सत्थसत्तवण्णा संमलजंबू य वेतसकडंबा । तहें पीयंगृ सिरसा पलासरायद्दुमा कमसो ॥ १३६ (चेत्तदुमामूलेसुं पत्तेक्कं चउदिसासु चेते । पंच जिणिंदष्पडिमा पलियंकठिदी परमरम्मा ॥ १३७ "डमा अग्रत्थंभा हवंति वीस फुडें । पडिमापीढसरिच्छा पीडा थंभाण णादव्वा ॥ १३८ एक्केकमाणथंभे भट्ठावीस जिणिदपडिमाम । चउसु दिसासुं सिंहासणविण्णासजुत्ताओ ॥ १३९ १२८] परन्तु सप्त धातुओं से रहित होने के कारण निश्वयसे उन देवोंके वीर्यका क्षरण नहीं होता । केवल वेद नोकषायकी उदीरणाके शान्त होनेपर उन्हें संकल्पसुख उत्पन्न होता है ॥ १३१ ॥ बहुत प्रकारके परिवार से युक्त इन्द्र और प्रतीन्द्रादिक चार देव भी विविध प्रकारकी छत्रादिरूप विभूतियोंसे शोभायमान होते हैं ॥ १३२ ॥ प्रतीन्द्रादिक चार देवोंके सिंहासन, छत्र और चमर, ये अपने अपने इन्द्रों के समान होते हुए भी आकार में कुछ कम होते हैं ॥ १३३ ॥ सब इन्द्रोंके चिह्न मणियोंसे खचित किरीट (तीन शिखरवाला मुकुट) और प्रतीन्द्रादिक चार देवोंका चिह्न साधारण मुकुट ही जानना चाहिये ॥ १३४ ॥ ओलगशालाओंके आगे विविध प्रकार के रत्नोंसे निर्मित चैत्यवृक्ष होते हैं । वे ये ( अग्रिमगाथामें निर्दिष्ट ) चैत्यवृक्ष असुरादिक कुलोंसे चिह्नरूप होते हैं ॥ १३५ ॥ अश्वत्थ ( पीपल ), सप्तपर्ण, शाल्मलि, जामुन, वेतस, कदंब, तथा प्रियंगु, शिरीष, पलाश और राजद्रुम, ये दश चैत्यवृक्ष क्रमसे उन असुरादिक कुलोंके चिह्नरूप होते हैं ॥ १३६ ॥ प्रत्येक चैत्यवृक्षके मूल भागमें चारों ओर पल्यंकासन से स्थित परम रमणीय पांच पांच जिनेन्द्रप्रतिमायें विराजमान होती हैं ॥ १३७ ॥ प्रतिमाओंके आगे बीस रत्नमय स्तम्भ ( मानस्तम्भ ) होते । स्तम्भोंकी पीठिकायें प्रतिमाओं की पीठिकाओंके सदृश जानना चाहिये ॥ १३८ ॥ एक एक मानस्तम्भके ऊपर चारों दिशाओं में सिंहासन के विन्याससे युक्त अट्ठाईस जिनेन्द्रप्रतिमायें होती हैं ॥ १३९ ॥ १ ब चिण्हा इंदमाहोंति. २ ब तय ३ द चेट्ठतो. ४ द पुढं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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