________________
-३. १३०]
तिदियो महाधियारो
[१२७
अग्गिकुमारा सम्वे जलतसिहिजालसरिसदित्तिधरा । णवकुवलयसमभावा वादकुमारा वि णादव्वा ॥ १२१ पंचसु कल्लाणेसु जिणिदपडिमाण पूजणणिमित्तं । गंदीसरम्मि दीवे इंदा जायति भत्तीए । १२२॥ सीलादिसंजुदाणं पूजणहेर्दू परिक्खणणिमित्तं । णियणियकोडणकज्जुब वइरिसमूहस्स मारणिच्छाए॥ १२३ असुरप्पहुदीण गदी उड्डसरूवेण जाव ईसाणं । णियवसदो परवसदो अच्चुदकप्पावही होदि ॥ १२४ कणयं वणिरुबलेवा णिम्मलकंती सुगंधणिस्सासा । णिरुवमयरूवरेखा समचउरस्संगसंठाणा ॥ १२५ लक्खणजुत्ता संपुण्णमियंकसुंदरमहाभासा । णिचं चेय कुमारा देवा देवी य तारिसिया ॥ १२६
रोगजरापरिहीणा णिरुवमबलवीरिएहिं परिपुण्णा । आरत्तपाणिचरणा कदलीघादेण परिचत्ता ॥ १२७ ( वररयणमोडेधारी वरविविहविभूसणेहिं सोहिल्ला । मंसट्टिमेधलोहिदमजबसँसुक्कपरिहीणा ॥ १२८
कररुहकेसविहीणा णिरुवमलावण्णदित्तिपरिपुण्णा । बहुविहविलाससत्ता देवा देवी य ते होंति ॥ १२९ असुरादी भवणसुरा सव्वे ते होंति कायपविचारों । वेदस्सुदीरणाएं अणुभवणं माणुससमाणं ॥ १३०
सब अग्निकुमार जलती हुई अग्निकी ज्वालाके सदृश कान्तिके धारक और वातकुमार देव नवीन कुवलय ( नील कमल ) के सदृश जानना चाहिये ॥ १२१ ॥
इन्द्र लोग भक्तिसे पांच कल्याणकोंके निमित्त (ढाई द्वीपमें) तथा जिनेन्द्र-प्रतिमाओंकी पूजनके निमित्त नन्दीश्वर द्वीपमें जाते हैं ॥ १२२ ॥
शीलादिकसे संयुक्त किन्हीं मुनिवरादिककी पूजन व परीक्षाके निमित्त, अपनी अपनी क्रीडा करने के लिये, अथवा शत्रुसमूहको नष्ट करनेकी इच्छासे असुरकुमारादिक देवोंकी गति ऊर्ध्वरूपसे अपने वश, अर्थात् अन्यकी सहायतासे रहित, ईशान स्वर्गतक, और परके वशसे अच्युत स्वर्गतक होती है ॥ १२३-१२४ ॥
उक्त देव सुवर्णके समान मलके संसर्गसे रहित, निर्मल कान्तिके धारक, सुगंधित निश्वाससे संयुक्त, अनुपम रूपरेखावाले, समचतुरस्र नामक शरीरसंस्थानसे सहित, लक्षणोंसे युक्त, पूर्ण चन्द्रके समान सुन्दर महाकान्तिवाले, और नित्य ही कुमार होते हैं । देवोंके समान उनकी देवियां भी वैसे ही गुणोंसे युक्त होती हैं । १२५-१२६ ॥
वे देव और देवियां रोग एवं जरासे विहीन, अनुपम बल-वीर्यसे परिपूर्ण, किंचित् लालिमायुक्त हाथ-पैरोंसे सहित, कदलीघात अर्थात् अकालमरणसे रहित, उत्कृष्ट रत्नोंके मुकुटको धारण करनेवाले, उत्तमोत्तम विविधप्रकारके भूषणोंसे शोभायमान, मांस-हड्डी-मेदा-लोहू-मज्जा-वसा और शुक्र, इन सात धातुओंसे विहीन, नख एवं बालोंसे रहित, अतुल्य लावण्य व दीप्तिसे परिपूर्ण, और अनेक प्रकारके हाव-भावोंमें आसक्त होते हैं ॥ १२७-१२९ ॥
वे सब असुरादिक भवनवासी देव कायप्रवीचारसे युक्त होते हैं, तथा वेद नोकषायकी उदीरणा होनेपर वे मनुष्यों के समान कामसुखका अनुभव करते हैं ॥ १३० ॥
. १ द मारणिवाए. २ ब मेड , ३ द मंसडि. . वेदसुदीरणयाए. ७दव माणस.
४ द मजवसूसुक्क .
५ द ब पडिचारा.
६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org