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________________ -३. ४०] तिदियो महाधियारो [११५ छद्दोभूमुहरुंदा' चउजोयणडच्छिदाणि पीढाणि । पीढोवरि बहुमज्झे रम्मा चेटुंति चेत्तदुमा ॥ ३३ पत्तेकं रुक्खाणं अवगाढं कोसमेकमुढेिं । जोयण खंदच्छेहो साहादीहत्तणं च चत्तारि ॥ ३४ को ।। जो १।४। । विविहवररयणसाहा विचित्तकुसुमोवसोभिदा सव्वे । वरमरगयवरपत्ता दिव्वतरू ते विरायति ॥ ३५ विविहंकुरुचेचइया विविहफला विविहरयणपरिणामौ । छत्तादिछत्तजुत्ता घंटाजालादिरमाणिज्जा ॥३६ (आदिणिहणेण हीणा पुढिविमया सव्वभवणचेत्तदुमा । जीर्घप्पत्तिलयाणं होति णिमित्ताणि ते णियमाँ ॥ ३७ चेत्ततरूणं मूले पत्तेकं चउदिसासु पंचेव । चेटुंति जिणप्पडिमा पलियंकठिया सुरोहिं महणिज्जा ॥ ३८ चउतोरणाभिरामा अट्टमहामंगलेहि सोहिल्ला । वररयणणिम्मिदाह माणथंभेहि अइरम्मा ॥३९ । वेदीवण्णणा गदा। वेदीणं बहुमज्झे जोयणसयमुच्छिदा महाकूडा । वेत्तासणसंठाणा रयणमया होंति सव्वट्ठ ॥ ४० पीठोंकी भूमिका विस्तार छह योजन, मुखका विस्तार दो योजन, और उंचाई चार योजन होती है । इन पीठोंके ऊपर बहुमध्यभागमें रमणीय चैत्यवृक्ष स्थित होते हैं ॥ ३३ ॥ भूविस्तार ६, मु. वि. २, उंचाई ४ यो.। प्रत्येक वृक्षका अवगाढ़ एक कोस, स्कंधका उत्सेध एक योजन, और शाखाओंकी लंबाई चार योजनप्रमाण कही गयी है ॥ ३४ ॥ अवगाढ़ को. १, स्कन्धकी उंचाई यो. १, शाखाओंकी लंबाई यो. ४ । वे सब दिव्य वृक्ष विविध प्रकारके उत्तम रत्नोंकी शाखाओंसे युक्त, विचित्र पुष्पोंसे अलंकृत और उत्कृष्ट मरकत मणिमय उत्तम पत्रोंसे व्याप्त होते हुए अतिशय शोभाको प्राप्त हैं ॥ ३५ ॥ __ विविधप्रकारके अंकुरोंसे मंडित, अनेक प्रकारके फलोंसे युक्त, नानाप्रकारके रत्नोंसे निर्मित, छत्रके ऊपर छत्रसे संयुक्त, घंटाजालादिसे रमणीय, और आदि-अन्तसे रहित, ऐसे वे पृथिवीके परिणामरूप सब भवनोंके चैत्यवृक्ष नियमसे जीवोंकी उत्पत्ति और विनाशके निमित्त होते है ।। ३६-३७॥ चैत्यवृक्षोंके मूलमें चारों दिशाओंमेंसे प्रत्येक दिशामें पद्मासनसे स्थित और देवोंसे पूजनीय पांच पांच जिनप्रतिमायें विराजमान होती हैं ॥ ३८ ॥ ये जिनप्रतिमायें चार तोरणोंसे रमणीय, आठ महा मंगल द्रव्योंसे सुशोभित, और उत्तमोत्तम रत्नोंसे निर्मित मानस्तंभोंसे अतिशय शोभायमान होती हैं ॥ ३९ ॥ इसप्रकार वेदियोंका वर्णन समाप्त हुआ। ____इन वेदियोंके बहुमध्य भागमें सर्वत्र एकसौ योजन ऊंचे, वेत्रासनके आकार, और रत्नमय महाकूट स्थित हैं ॥ ४०॥ १द व रुंदो. : २ व अवगाढ. . ३ ब को १ । नो ४. ४ द परिमाणा. ५.द ब जुदा. ६ द ब जीहप्पतिआयाणं. ७ द ब पिआयामा................ .... .... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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